लॉकडाउन तीन के खत्म होते न होते देश में कोरोना मरीजों की संख्या में रिकार्ड बढ़ोतरी हो गई। अब मरीजों की संख्या 96 हजार के पार चली गई है। रविवार से सोमवार के 24 घंटों में 5 हजार नए मरीज मिले। सोमवार से लॉकडाउन 4 की शुरुआत हो गई है, जो 31 मई तक चलेगा। इस लॉकडाउन में केंद्र सरकार ने अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए कुछ रियायतें देने का निश्चय किया है, लेकिन इस बारे में अंतिम फैसला लेने का अधिकार राज्यों को दे दिया है। जैसे अंतरराज्यीय बस सेवा शुरु हो सकेगी, निजी वाहन भी चलेंगे लेकिन इस बारे में फैसला राज्य ही लेंगे। मॉल में स्थित दुकानों को छोड़कर बाकी दुकानें खोलने की अनुमति दी गई है। लेकिन कौन सी दुकानें खुलेंगी, इसके बारे में फैसला राज्य लेंगे।
कोरोना की स्थिति के आधार पर क्षेत्रों को रेड, ऑरेंज और ग्रीन जोन में बांटने का निर्णय भी राज्य और केंद्र शासित प्रदेश लेंगे। क्या दूसरे के कंधे पर रखकर बंदूक चलाना इसे ही कहते हैं। तीन-तीन लॉकडाउन तो मोदी सरकार ने अपनी मर्जी से लागू किए। पहले लॉकडाउन के वक्त तो राज्यों से चर्चा तक जरूरी नहीं समझी। शायद सरकार कोरोना के संकट को सियासी तिकड़म की तरह आसान मान रही थी जहां बहुमत का जोर दिखाकर मनचाहे फैसले लिए जाएं और विपक्ष को जवाब देना भी जरूरी न समझा जाए। अगर कोरोना एकाध लॉकडाउन में ही काबू में आ जाता, तो फिर इस वायरस पर राष्ट्रवाद का मुलम्मा चढ़ाकर सरकार अपनी छाती और चौड़ी करती।
देश के बदल चुके इतिहास में यह दर्ज किया जाता कि मोदीजी के कारण ही कोरोना जैसे दुश्मन को हरा दिया गया। इस बात को चुनावों में भी खूब भुनाया जाता। लेकिन मोदीजी के मन की बात कोरोना ने नहीं सुनी। पहले, दूसरे और तीसरे लॉकडाउन के साथ वह अपने पैर पसारता रहा। सेहत के साथ देश की आर्थिक सेहत पर भी इसका बहुत असर पड़ा। सरकार ने न गरीबी के कारण को समझने की कोशिश की, न गरीबों के दर्द को, न गरीबी की मजबूरियों को।
दरअसल बीते छह सालों में सरकार की नीतियों के केंद्र में उद्योगपतियों का मुनाफा ही रहा है। इसलिए नीति निर्धारक यही सोचते रहे दो-चार महीने उद्योग बंद होने के बावजूद उद्योगपति घर बैठे खा-पी सकेंगे। उन्हें थोड़ा घाटा जरूर होगा, लेकिन सेहत की खातिर वे इसे सह लेंगे। नीति बनाने वालों ने इस बात पर विचार करना जरूरी ही नहीं समझा कि दो-चार महीने क्या, दो दिन बंद होने से कितने घरों में चूल्हे नहीं जलते हैं। अगर लॉकडाउन जारी रहेगा तो गरीब और निम्न आयवर्ग के लोगों का जीवनयापन कैसे होगा।
सरकार की इसी अदूरदर्शिता के कारण देश ने आजादी के बाद सबसे बड़ा विस्थापन देखा। अब भी हजारों कामगार सड़कों पर हैं। जो किसी तरह घर पहुंच चुके हैं, उनके पास आगे रोजगार किस तरह रहेगा, इसका कोई ठिकाना नहीं। वे कोरोना से खुद कैसे सुरक्षित रहेंगे और बाकियों को कैसे बचाएंगे, इस बारे में भी उन्हें कुछ नहीं पता।
कामगारों के चले जाने से उद्योगों को चलाने में दिक्कतें आ रही हैं और कारोबार नहीं चलेगा तो देश की अर्थव्यवस्था शून्य से ऋणात्मक होने की ओर बढ़ेगी। ये तमाम दिक्कतें अब अपने विकराल रूप में देश के सामने आ चुकी हैं तो सरकार चाह कर भी इनसे मुंह नहीं फेर सकती। इसलिए अब लॉकडाउन 4 नए रंग-ढंग में करने का फैसला लिया गया है। इसमें दिशानिर्देश तो केंद्र के रहेंगे लेकिन फैसला राज्यों का होगा।
यानी अगर कोरोना के मामले बढ़े तो उस राज्य की नीतियों को जिम्मेदार ठहराने में औऱ अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने में सरकार को खास मुश्किल नहीं होगी। अगर गैरभाजपा राज्यों में स्थिति बिगड़ी तो भाजपा को सियासत करने का एक और मौका मिल जाएगा और अगर भाजपा शासित राज्य में हालात खराब हुए तो यह कहा जा सकता है कि कोरोना एक वैश्विक समस्या है और मोदीजी के नेतृत्व में देश इससे लड़ने की कोशिश कर रहा है। चित्त और पट दोनों सरकार के। लेकिन सिक्का खोटा निकले तो क्या होगा।
लॉकडाउन बढ़ाते रहने से समस्या का समाधान नहीं निकलेगा, बल्कि टेस्टिंग बढ़ाने और इलाज की सुविधाएं बेहतर करने से ही समस्या का सामना किया जा सकेगा। यह बात तीन महीनों से मोदी सरकार से की जा रही है, लेकिन सरकार लॉकडाउन के रंग-ढंग तय करने में लगी है। लॉकडाउन क्या कोई त्योहार है, जो अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग तरीकों से मनाया जाएगा। यह एक गंभीर समस्या को कुछ देर रोके रखने के लिए दरवाजे को बंद करने जैसा है। पर हम देख रहे हैं कि दरवाजे पर ताले के बाद भी कोरोना खिड़की के रास्ते आ सकता है। इसलिए सरकार 31 मई के बाद पांचवें चरण के लॉकडाउन के बारे में सोचे, उससे पहले अब कम से कम आंख-कान खोलकर देश की वास्तविक हालत देखे और अपवाद स्वरूप ही सही पर गरीबों को केंद्र में रखकर फैसले ले।
(देशबन्धु)