-मिथिलेश।।
कोरोना या कोविड-19 की वैश्विक महामारी ने विश्व-गुरु बनने की आकांक्षा और पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था होकर जन्नत बनने की तमन्ना रखनेवाले हमारे देश की शासन-व्यवस्था की दरारों को पूरी तरह खोल कर रख दिया है। इसकी दरारें ही नज़र नहीं आ रही हैं, बल्कि लोक-कल्याणकारी राज्य की जो बची-खुची सम्भावनाएं वोट की राजनीति की वजह से दिखती थीं वे भी अब तार- तार हो चुकी हैं। गरीबी के अभिशाप को परे धकेलने के लिए अपना गाँव-देश छोड़ने को पहले ये मज़दूर लाचार हुए थे और अब दुर्दशाग्रस्त होकर ‘रिवर्स माइग्रेशन’ अथवा ‘देस वापसी’ के लिए विवश ये लोग बेनाम और बेचेहरा असमय मौत के आगोश में समाने को बाध्य हुए हैं। इन मज़दूरों की मौत, इनके पाँवों के छाले, देस वापस भेजने के झांसे में अपना आत्मसम्मान गंवाने वाले, गाँव-घर के निकट पहुँचते -पहुँचते दम तोड़ जानेवाले लोग कौन हैं? सत्ता इन्हें इस देश का नागरिक भी मानती है या फिर कीड़े मकोड़े मान इन्हें सज़ा दिये जा रही है? ये सवाल जितना तनकर हमारे सामने खड़ा है, क्या उतने ही तीखेपन के साथ सरकारी महकमे के सामने भी खड़ा है? मुझे नहीं लगता कि सरकारी महकमे के कानों पर जूं भी रेंग रहे हैं, खासकर केंद्र के सिंहासन पर काबिज नेतृत्व, जिसकी प्रबल आकांक्षा और चिर प्रतीक्षित कामना है कि भारत को विश्व गुरु बनाकर ही दम लेना है। देस वापसी को मजबूर मज़दूर सड़कों पर, रेलवे ट्रैक पर चलते हुए धूप-घाम में अपनी जान गंवा रहे हैं और सरकारें हैं कि सब कुछ अच्छा है, का अजपा जाप जप रही हैं। देश में केरल और झारखंड जैसे अपवाद भी हैं, जो अपने राज्य के प्रवासी मज़दूरों को वापस लाने और आने के बाद समुचित व्यवस्था करते या करने का ईमानदार प्रयास करते नज़र आते हैं, अंधेरे में टिमटिमाते जुगनुओं की तरह।परन्तु,28 राज्यों और नौ केंद्र शासित प्रदेशों में से दो राज्य सरकारों की कोशिशें ऊँट के मुँह में जीरे से ज्यादा की हैसियत रखती नहीं कही जा सकती हैं।
सरकारी महकमे का तो ये दस्तूर पुराना है, जो किसी भी हाल में अपनी नाकामियों पर परदा डालता ही है और ठीकरा प्रताडितों व विपक्षियों पर फोड़ता भी है, लेकिन उम्मीद की आखिरी किरण, जिससे थोड़ी रोशनी की उम्मीद बंधी रही है वह अदालत है। इनमें भी सुप्रीम कोर्ट सबसे अहम है, पर वहाँ से भी जब अंधेरी सुरंग को ही उजाले के स्रोत रूप में देखने की हिदायत दी जाती है, तब इस देश के नागरिक के नाते दिल बैठने लगता है। सम्पूर्ण सम्मान और इज्जत ओ एहतराम के बावजूद सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के हवाले से कहने को विवश हो जाना पड़ता है कि-
‘बागबां ने जब आग दी आशियाने को मेरे
जिन पे तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे।’ (साकिब लखनवी)
हम बड़े गर्व से बखान करते हैं कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं, लेकिन इसके दो खम्भों में तो पहले से ही घुन लग चुके थे, पर अब तो तीसरे खम्भे की नींव भी हिलती मालूम पड़ने लगी है। जिनके हाथ में पड़े घट्ठों ने ही इस देश को खाने, पीने, चलने, दौड़ने और उसकी गति को बढ़ाने की सलाहियत दी है, उन्हीं की अंतहीन पीड़ा को सुनने का धैर्य तक सर्वोच्च अदालत के पास नहीं बचा है। सुनने की बात तो दूर मज़ाक उड़ाते हुए भी नजर आ रहे हैं सम्माननीय, इसे क्या कहें? क्या इस परिदृश्य के बावजूद हम लोक कल्याणकारी राज्य के स्वस्थ लोकतंत्र में ही साँसें ले रहे हैं?
24 मार्च की रात्रि के ठीक आठ बजे समूचे देश में सम्पूर्ण लॉकडौन की घोषणा प्रधान सेवक जी करते हैं और 25 मार्च से ही प्रवासी मज़दूरों की देस वापसी की जद्दोजहद शुरू हो जाती है। (रात के आठ बजे प्रायः अविवेकपूर्ण निर्णय ही लिये गए हैं और देश तथा देशवासियों ने उसका खामियाजा भी भुगता है, सो यह निर्णय भी पूर्व के फैसलों को कोसों पीछे छोड़ने वाला साबित हुआ है।) इसी जद्दोजहद में जान गंवाने के त्रासदी की शुरूआत भी हो जाती है और 25 मार्च से प्रवासी मज़दूरों के जान गंवाने का जो सिलसिला शुरू हुआ उसकी गिनती दिन ब दिन बढ़ती ही चली जा रही है। केरल से तमिलनाडु अपने घर लौट रहे मज़दूर जंगल में लगी आग की चपेट में आते हैं और फिर कभी किसी हादसे में तो कहीं पुलिसिया कार्रवाई में या कहीं किसी मोटरगाड़ी की चपेट में आकर, किसी रेल के चक्के से कटकर या फिर भूख-प्यास-डिहाइड्रेशन की वजह से प्रवासी मज़दूरों के दम तोड़ने की घटनाएं घटित हो ही रही हैं। यह आंकड़ा अबतक घोषित रूप से छह सौ को पर कर चुका है। सैकड़ों मज़दूर घायल अवस्था में जहाँ तहाँ बेबसी के आँसू बहाने को अभिशप्त भी हैं। प्रवासी मज़दूरों की देस वापसी केंद्र और कई राज्य सरकारों के बीच फुटबॉल होकर रह गई है।
प्रवासी मज़दूरों की वापसी अथवा उनके समक्ष जीवन को बनाये रखने के संकट पर मद्रास हाईकोर्ट ने जिस सम्वेदनशीलता का परिचय दिया, वह काबिले तारीफ़ है, क्योंकि वहीं से यह टिप्पणी आती है कि ‘मज़दूरों की दयनीय हालत को देखकर हम आँसू नहीं रोक सकते।’ 22 मई तक केंद्र व राज्य सरकारों से रिपोर्ट तलब की गई है, लेकिन इसके उलट 15 मई को सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी का सामना होता है तो निःशब्द होने के अलावा कोई चारा नहीं रहता। न्याय की उम्मीद में कोई जाए और ये सुनने को मिले कि ‘पैदल चलने से किसी को कोई कैसे रोक सकता है? और, ‘अनुच्छेद 32(संवैधानिक उपचार के अधिकार) के तहत हर कोई कार्रवाई की उम्मीद करे, तो क्या किया जाय?’ इन टिप्पणियों के मद्देनजर ये कहा जाना गलत होगा क्या कि न्याय का आखिरी ठीहा भी जब दिनदहाड़े ठेंगा दिखाने लगे तो क्या किया जाय? उसी के नीचे का एक कोर्ट इसे मानवीय त्रासदी बताये और बॉस फरियादी का मज़ाक उड़ाए, तो समझने-मानने को विवश होना चाहिए कि ‘आत्मनिर्भर’ होने की सलाह पर अमल में ही भलाई है। इसके बाद यदि कुछ बचे तो मौके-बेमौके जब भी ताली- थाली बजाते हुए दीये जलाने के साथ पुष्प-वर्षा के लिए तत्पर होना ही नागरिक होने का परम कर्तव्य समझे।
अविवेकपूर्ण ढंग से किये गए लॉकडौन और ज़रूरी एहतियात भी न बरते जाने के लिए सरकार के मुखिया और उसके चट्टो-बट्टों में तनिक झेंप भी नहीं है। जिस देश में करोड़ों की संख्या में मजदूर रोजी-रोटी की तलाश में अंतरराज्यीय और अंतर्जनपदीय प्रव्रजन के लिए विवश होते हों, वहाँ अब तक किसी मुकम्मल नीति का नहीं होना कई सवालों को जन्म देता है। राष्ट्रीय आमदनी में आधे से ज्यादा का योग देनेवाले ये मज़दूर दर-दर की ठोकरें खाकर मौत को गले लगाने की लाचारगी झेल रहे हैं और सरकार से लेकर न्यायालय तक असंवेदनशील व उपेक्षात्मक रवैये के साथ चुप्पी ओढ़े हुए हैं, इस पर गम्भीरता से विचार क्या अब ज़रूरी नहीं है? पलायन को मजबूर होने से रोकने के लिए क्या अब भी ग्रामोत्थान और गाँधी के ग्राम स्वराज्य की दिशा में कारगर रणनीति के साथ बढ़ने का समय नहीं आ गया है, जहाँ मज़दूरों के हित संरक्षित और सुरक्षित हो पाएं! इस त्रासदी में दुर्दशा के शिकार ज्यादातर हिंदी क्षेत्र (बीमारू प्रदेश) के प्रवासी मज़दूर ही हुए हैं, इसलिए इन प्रदेशों के हुक्मरानों को ही गम्भीरता से सोचने-विचारने की ज़रूरत ज्यादा है। अब तक के रवैये से इस समस्या का निदान दूर की कौड़ी नज़र आता है, क्योंकि आठ घंटे के बजाय 12 घण्टे के श्रम-दिवस की नीति कई देशभक्त राज्य सरकारों ने घोषित कर दी है, ऐसे में श्रमिक वर्ग क्या करे? मजबूरी में अपना देह गलाये या फिर एक नयी व्यवस्था कायम करने के लिए संघर्ष के रास्ते पर आगे बढ़े? यहां लाख टके का यह सवाल मज़दूर हितों को समर्पित वाम संगठनों के सामने भी है कि वे क्या एकजुटता प्रदर्शित करते हुए समय की मांग के अनुरूप मजदूर हित में संघर्ष की राह पर आगे बढ़ेंगे? जिनके सहारे मज़दूरों के थोड़े- बहुत अधिकार सुरक्षित रह पा रहे थे, वे भी अब दूर छिटक चुके हैं, ऐसी दशा में दुष्यंत ही याद आते हैं-
‘वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे
कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवार न देख।’
‘