एक महीने से भी अधिक वक्त तक यात्री ट्रेनों का परिचालन बंद रहने के बाद अब रेलवे ने एक बड़ा फैसला लिया है कि 12 तारीख से 15 शहरों के लिए ट्रेनें चलेंगी, ये सभी ट्रेनें नई दिल्ली से चलेंगी। दरअसल कोरोना के प्रसार को रोकने के लिए देश में लॉकडाउन किया गया, फिर इसकी मियाद दो बार बढ़ाई गई, ताकि संक्रमण को रोका जा सके। लोग तो घरों में कैद हुए ही, यातायात के पहिए भी थम गए। विमान सेवा, बस सेवा, मेट्रो सेवा और हिंदुस्तान को एक करती हुई पटरियों पर यहां से वहां गुजरती यात्री ट्रेनें भी देश के रेल इतिहास में पहली बार बंद कर दी गईं। इस पूर्णबंदी का असर बीमारी की रोकथाम पर कितना पड़ा, यह अलग अध्ययन का विषय है, क्योंकि मार्च से लेकर मई के दूसरे सप्ताह तक आंकड़ों में बढ़ोतरी ही देखी जा रही है।
लेकिन पूर्णबंदी से अर्थव्यवस्था की बची-खुची शक्ति भी खत्म हो गई। उद्योगों पर ताले लटकने से लाखों लोगों के रोजगार पर असर पड़ा। यातायात के साधन बंद होने से कारोबार ठप्प हो गए। शहरों में काम नहीं बचा तो लाखों मजदूर पैदल अपने घरों को चल पड़े। और सरकार ने एक महीने बाद उनकी तकलीफों को देखते हुए श्रमिक ट्रेनें चलाने का फैसला मई के पहले सप्ताह में लिया। और अब दूसरा सप्ताह आते-आते यह घोषणा भी हो गई कि कुछ शहरों के लिए ट्रेनें शुरु होंगी। बेशक संचालन और यात्रा का तरीका अब पहले की तरह नहीं रह जाएगा।
यात्रियों को टिकट बुक करने से लेकर गंतव्य तक पहुंचने के लिए बदलाव का सामना करना पड़ेगा और रेलवे के लिए भी यह चुनौती रहेगी कि वह मात्र 15 शहरों के लिए चुनिंदा ट्रेनें चलाकर करोड़ो लोगों की जरूरतों को कैसे पूरा करे। क्योंकि जब कुछ लोगों को राहत मिलेगी, तो बाकी भी ऐसी ही उम्मीद करेंगे। अभी तो टिकट की बुकिंग केवल आईआरसीटीसी की वेबसाइट से ही होगी, लेकिन यह व्यवस्था कितने दिन चलती है और कितने सुचारू तरीके से चलती है, यह देखना होगा। एकदम से सैकड़ों ट्रेनें बंद करने और करोड़ों यात्रियों की आवाजाही रुकने से रेलवे को करोड़ों का घाटा हुआ है। अब रेलवे की माली हालत भी थोड़ी सुधरेगी।
लेकिन सवाल यही है कि लॉकडाउन के तीसरे चरण में जब कोरोना मरीजों की संख्या में इजाफा देखने मिल रहा है, तब ट्रेनों के संचालन का फैसला अचानक कैसे ले लिया गया। क्या स्वास्थ्य विशेषज्ञों से इसके लिए परामर्श किया गया था। क्या ट्रेनों की आवाजाही से कोरोना के बढ़ने का खतरा नहीं बढ़ेगा। और अगर पर्याप्त सुरक्षा मानकों और प्रबंधों के साथ ट्रेनें चलाई जा रही हैं, तो यही काम अंतरराज्यीय बस सेवा, विमान सेवा और मेट्रो के लिए भी क्यों नहीं किया जा सकता।
अभी कामगार वर्ग के अलावा ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो अपने घरों से दूर दूसरे शहरों में फंसे हैं या जिनके पास नौकरी है, लेकिन यातायात सुविधा न होने के कारण वे दफ्तर नहीं पहुंच पा रहे हैं। अर्थव्यवस्था में इनका भी अहम योगदान है, फिर सरकार इनके लिए भी आवाजाही की सुविधा क्यों नहीं शुरु करती। यह समझना लगभग नामुमकिन है कि केंद्र सरकार कब कौन सा फैसला लेगी और उसके पीछे कारण क्या होगा। क्योंकि अब तक के अनुभव यही बताते हैं कि सरकार पहले एक फैसला ले लेती है, फिर उसमें दस तरह के बदलाव होते रहते हैं, जाहिर है फैसले पूरी तरह सोच विचार कर नहीं लिए जाते, इसलिए उनमें बार-बार बदलाव की जरूरत पड़ती है।
नोटबंदी और जीएसटी के बाद सरकार ने अपने निर्णय में कितने फेरबदल किए, देश उसका भुक्तभोगी है। अब कोरोना से निपटने की रणनीति में भी यही गलती देखी जा रही है। सबसे पहले अचानक लॉकडाउन का फैसला लिया गया, जिससे करोड़ों जिंदगियों के सामने भविष्य का संकट गहरा गया। लॉकडाउन दोबारा बढ़ा, तब भी सरकार के पास इससे निकलने का कोई रोडमैप नहीं था कि आगे क्या करना है। फिर 17 मई तक तीसरे लॉकडाउन की घोषणा हो गई औऱ सरकार को अब भी शायद नहीं मालूम कि आगे हालात से वो कैसे निपटेगी।
पहले श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में केवल 1200 यात्रियों को जाने की अनुमति थी, लेकिन अब नए आर्डर के अनुसार 1700 श्रमिक एक बार में यात्रा कर सकेंगे। और ट्रेन तीन स्टेशनों पर भी रुकेगी। केंद्र सरकार ने सभी राज्यों से अपील की फंसे हुए श्रमिकों के लिए और विशेष रेलगाड़ियों के संचालन को अनुमति दें ताकि वे अगले चार दिनों के अंदर अपने घर पहुंच सकें। गृहमंत्रालय ने राज्यों को सख्त निर्देश दिए हैं कि वह मजदूरों को सड़क या पटरी के रास्ते घर जाने से रोके।
लेकिन पैदल घर लौट रहे मजदूरों के दर्द भरे किस्से अब भी सामने आ रहे हैं। मध्यप्रदेश-महाराष्ट्र सीमा पर एक महिला ने लगभग 70 किमी पैदल चल बच्चे को जन्म दिया और उसके घंटे भर बाद 160 किमी बच्चे को गोद में लेकर पैदल चली। यह लॉकडाउन के तीसरे चरण के बाद सरकार की तैयारी की हकीकत है, जिसकी खामियों का थप्पड़ गरीब को ही खाना पड़ रहा है। सरकार ने पहले शान से कहा था कोरोना को हराना है, अब शायद कहा जाएगा कि कोरोना के साथ ही जीना है। पहले 18 दिन के महाभारत, सीता के लिए लक्ष्मण रेखा, सबकी याद देश को दिला दी गई अब पूरे देश के सामने अभिमन्यु जैसे हालात खड़े हो गए हैं कि चक्रव्यूह के भीतर तो घुस गए, लेकिन निकलने का कोई ज्ञान नहीं है।
(देशबन्धु)
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