-चंद्र प्रकाश झा||
समकालीन वैश्विक समाज के महान विचारकों में शामिल 91 वर्षीय प्रोफेसर नॉम चॉम्स्की ने यूं ही नहीं कहा है कि कोरोना वायरस दुनिया की सबसे बड़ी परेशानी नहीं है. लेकिन कोरोना वायरस की एक ख़ासियत यह है कि उसने हमें सोचने पर मजबूर करे कि
1) हम किस तरह की दुनिया में रहना चाहते हैं.
2) कोरोना वायरस का संकट इस समय क्यों है?
3) और क्या यह बाज़ार नियंत्रित बन रही दुनिया की नाकामयाबी की गाथा है?
प्रोफेसर चॉम्स्की ने कुछ टी.वी. चैनल और पत्र -पत्रिकाओं से बातचीत में जो बातें कही हैं उनका दुनिया ने संज्ञान लिया है. क्योंकि वह और उनकी बातें अलहदा हैं। उन्होंने 10 बरस की अल्पायु में ही अपना पहला वैचारिक लेख लिखा था। यह लेख स्पेन में 1936 से 1939 तक रिपब्लिकन और
राष्ट्रवादियों के बीच गृहयुद्ध पर था जिसमें अन्ततः राष्ट्रवादियों की जीत हुई थी और उसके बाद जनरल फ्रैकों विश्व भर में सर्वाधिक 36 बरस 1975 में अपनी मृत्यु तक तानाशाह रहे। नॉम चोम्स्की के चिंतन में उस पहले लेख के विषय से द्वित्तीय विश्व युद्ध, पूर्व और पश्चिम जर्मनी को विभक्त
करने 1961 में बनी बर्लिन दीवार को अमेरिका- सोवियत संघ के शीत युद्ध (1945 -1989) उपरांत गिरा देने , अमेरिका द्वारा संचालित वियतनाम युद्ध (1955- 1975) , खाड़ी युद्ध (1990-91 ) से लेकर 2020 में कोरोना वायरस के वैश्विक प्रकोप तक लगभग सभी घटनाक्रम शामिल रहे हैं.
कोरोना प्रकोप पर उनके विचार उन्हीं के शब्दों का अनुदित रूप यूं है।
मैं भी इस समय सेल्फ़ आइसोलेशन में हूँ। मैं बचपन में रेडियो पर हिटलर के भाषण सुना करता था। मुझे शब्द नहीं समझ में आते थे। फिर भी मनस्थिति और डर को महसूस कर लेता था जो हिटलर के भाषणों में था।मौजूदा दौर में (अमेरिकी राष्ट्रपति ) डोनाल्ड ट्रंप के भाषण वैसे ही हैं.उनसे उसी तरह की प्रतिध्वनि महसूस होती है। ऐसा नहीं कि ट्रंप फ़ासिस्ट है। वह फ़ासिस्ट विचारधारा में डूबा शख्स नहीं , बल्कि सामाजिक रूप से विकृत है। वह सोशिओपैथ है जिसे अपनी ही फ़िक्र होती है। कोरोना काल में ट्रंप की वैश्विक अगुवाई खतरनाक है।
कोरोनो वायरस काफी गंभीर है, भयानक है। इसके भयानक परिणाम हो सकते हैं। लेकिन आगे जाकर हम इससे बच निकलेंगे। परमाणु युद्ध का बढ़ता ख़तरा, वैश्विक गर्माहट और जर्जर होता लोकतांत्रिक इतिहास , ये तीन बड़े ख़तरे हैं जिनसे निपटा नहीं गया तो वे हमें बर्बाद कर देंगे। ख़तरनाक यह है कि अमरीका जैसे शक्तिशाली देश की बागडोर ट्रंप के हाथ में है। यह देश दूसरे
देशों पर प्रतिबन्ध लगाता है. लोगों को मरवाता है. दुनिया का कोई कतंत्र इसका खुलकर विरोध नहीं करता। यूरोप, ईरान पर लगे प्रतिबन्ध को सही नहीं मानता है, लेकिन अमरीका की ही बात मानता है। यूरोप को डर है कि अगर वह अमरीका का विरोध करेगा तो उसे वैश्विक वित्त व्यवस्था से बाहर कर दिया जाएगा। ईरान की आंतरिक परेशनियां है. लेकिन उस पर ऐसे कड़े प्रतिबन्ध
लगाए गए हैं कि वह कोरोना वायरस के दौर में बहुत ज्यादा दर्द झेल रहा है। क्यूबा अपनी आज़ादी के बाद से अमेरिका से जूझता रहा फिर भी वह अभी कोरोना ग्रस्त यूरोप की मदद कर रहा है। यूरोप के देश यूनान की मदद नहीं कर रहे हैं। दुनिया के सभी राजनेता कोरोना से मुकाबला को युद्ध कहते हैं। ये रिटोरिक है.फिर भी इसका महत्व है। कोरोना से लड़ने के लिए युद्धकाल की
तरह की गोलबंदी की ज़रूरत है.
भारत के बहुतेरे लोगों की ज़िन्दगी विकट है। जैसे रोज़ कुआं खोदकर पानी पीना हो। वे आइसोलेशन में जाएंगे तो उन्हें भूख मार देगी। तो फिर क्या करें ? सभ्य समाज में अमीर देशों को ग़रीब देशों की मदद करनी चाहिए। दुनिया की दुश्वारियां ऐसी चलती रहीं तो दक्षिण एशिया में रहना मुश्किल हो जाएगा। राजस्थान का तापमान 50 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चला गया। यह और बढ़ेगा। पानी पीने लायक़ नहीं बचा है। दक्षिण एशिया में दो परमाणु हथियार प्राप्त देश जो हर वक़्त लड़ते रहते हैं। कोरोना वायरस की परेशानी बहुत ख़तर क है लेकिन वह दुनिया के सबसे बड़े संकटों का बहुत छोटा हिस्सा है। इन संक से हम ज़्यादा दिनों तक नहीं बच सकते हैं। संभव है कि
दुनिया की कई परेशनियां हमारी ज़िन्दगी में उस तरह से छेड़छाड़ न करे जितनी कोरोना की वजह से हम अपनी ज़िन्दगी में महसूस कर रहे हैं। लेकिन दुनिया की ये परेशनियां हमारी ज़िन्दगी को ऐसी बदल देंगी कि ख़ुद को बचाना मुश्किल हो जाएगा। ऐसे दिन ज़्यादा दूर नहीं है. ये आने वाले ही हैं। हम जब कोरोना संकट से उबरेंगे तो हमारे पास कई विकल्प होंगे। एक विकल्प यह भी
होगा कि क्या तानाशाही व्यवस्था हो जिसके पास सारा कण्ट्रोल हो। या फिर ऐसा बेहतर समाज बने जो मानवीयता पर आधारित हो?