विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री राजस्थान के मुख्यमंत्री से गुहार लगाते हैं कि ‘कोचिंग हब’ कहे जाने वाले कोटा से उनके प्रदेशों के पढ़ रहे बच्चों को वापस भेजा जाये। राजस्थान की सरकार तुरन्त काम पर लग जाती है। एकाध प्रदेश की तो बसें पहुंच भी जाती हैं जो अपने बच्चों को बिठाकर लौटने के रास्ते पर हैं। वही कोटा, जो पिछले कुछ समय से देश भर में प्रतियोगी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होकर आईआईटी, आईआईएम, डॉक्टरी, इंजीनियरिंग कर अपना जीवन संवारने की इच्छा रखने वाले लाखों छात्रों का तीर्थ बना हुआ है। बेशक यह सुकून देने वाली बात है कि अपने घरों से दूर असुरक्षित तरीके से रहने वाले हजारों बच्चों के उनके अभिभावकों तक पहुंचाने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। ऐसे में उन श्रमिकों की भी चिंता होनी चाहिये जो अपने घरों तक पहुंचने के लिए अब भी जद्दोजहद कर रहे हैं। ज्यादातर खाली जेब और बिना या आधे-अधूरे भोजन के।
कोटा में पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावकों और सड़कों पर लावारिस पड़े अथवा सैकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्रा करने वाले मजदूरों की सामाजिक-आर्थिक हैसियत के अंतर को जान लें तो दोनों के बीच सलूक का फर्क भी स्पष्ट हो जायेगा। कोटा में विभिन्न परीक्षाओं की तैयारी करने के लिये जो रह रहे हैं वे ऐसे लोगों के बच्चे हैं जो (अपवादों को छोड़कर) अधिकतर खाते-पीते घरों के हैं। ज्यादातर धनाढ्य, उच्च व उच्च मध्य वर्ग परिवारों के बच्चे। ये वर्ग सत्ताधीशों के नजदीक या इर्द-गिर्द रहने वाले समुदाय के हैं जबकि अपने घरों के लिये पैदल लौटने वाले, कुछ रास्तों में मर-खप जाने वाले मजदूर असंगठित क्षेत्र के हैं। यह राजनैतिक प्रतिनिधित्व से पूर्णत: वंचित तबका है। बाहरी राज्यों या दूसरे शहरों में काम करने वाले मेहनतकश गांवों और छोटे कस्बों से निकले निम्नवर्गीय, खेतिहर मजदूर या समाज की अंतिम पंक्ति में खड़े लोग हैं जो गांवों के उजड़ने या किसानी चौपट होने के कारण पलायन किये हुए हैं। ये समूहों में छोटे-छोटे कमरे किराये पर लेकर या काम वाली जगहों (फैक्ट्री, निर्माणाधीन इमारतों) या झोपड़पट्टियों में रहते हैं।
अब लॉकडाऊन का ऐलान करते वक्त तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपील की थी कि लोग अपने किरायेदारों को न निकालें, उनके प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाएं, उनका ख्याल रखें आदि। मालिकों से भी कहा गया था कि उनके वेतन न रोके जायें। सच्चाई तो यह है कि मोदी की इस अपील को किसी ने नहीं सुना है। उद्योग-धंधे बंद होने और लंबे समय से उन गतिविधियों के पुन: प्रारंभ होने की कोई गुंजाईश नहीं होने के चलते ज्यादातर मालिकों ने न सिर्फ श्रमिकों की मेहनत के पैसे दबा लिये हैं बल्कि अपनी जान व प्रशासन के भय से उन्हें चलता भी कर दिया है। चूंकि ये असंगठित क्षेत्र के मजदूर हैं, उनकी न तो तनख्वाह के लिये सुनवाई होती है और न ही मकान मालिक की वे शिकायत कर पा रहे हैं। सड़कों पर चलते, कहीं पुलिस के डंडे खाते या अनजान जगहों पर रोक दिये गये हजारों लोग इसी व्यथा-कथा के हिस्से हैं।
छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे अपेक्षाकृत पिछड़े राज्यों के ऐसे लाखों कुशल-अकुशल श्रमिक महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा, एनसीआर आदि जैसे विकसित व विकासशील राज्यों या क्षेत्रों में काम करते हैं। दूसरी तरफ, कृषि की दृष्टि से विकसित पंजाब, हरियाणा जैसे प्रदेशों में भी वे उनके खेतों में कार्यरत हैं। काम बंद होने की स्थिति में वे खाली जेब व खाली पेट कैसे अपने घरों को लौटेंगे अथवा पुलिस द्वारा रोक दिये गये स्थानों पर ही रहकर किस प्रकार अपना जीवन बचायेंगे, इसकी कल्पना मात्र किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को विचलित कर सकती है। आज भी हजारों की संख्या में लोग रास्तों में फंसे पड़े हैं।
कोरोना से संक्रमित होने का खतरा उठाये हुए इन लोगों को बिना टेस्ट के ही कोरोना के संवाहक मान लिया गया है। देश भर में केरल जैसे गिनती के कुछ राज्यों को छोड़कर शायद ही कोई ऐसा प्रदेश हो जिसके पास अपने उन मजदूरों का मुकम्मल व भरोसेमंद लेखा-जोखा होगा जो काम करने बाहरी प्रदेशों में गये हैं। बड़ी औद्योगिक दुर्घटनाओं में अक्सर यह होता आया है कि मरने वाले श्रमिकों की लाशों को तक रफा-दफा कर दिया जाता है क्योंकि उनके सही रिकार्ड न ठेकेदार रखता है न उन सरकारों के पास होता है जहां से वे काम करने आए हुए होते हैं अथवा जहां वे काम करते हैं। यह त्रासदियों में प्रशासन व राजनीति का अमानवीय चेहरा है।
मुंबई का बांद्रा हो या गुजरात का सूरत अथवा दिल्ली, सभी जगहों से मजदूर हर हाल में लौटना चाहते हैं। ये श्रमिक मानते हैं कि अपने घरों में ही वे ज्यादा सुरक्षित हैं; और ‘मरना ही है तो क्यों न अपने घरों में मरा जाये’ की उनकी मंशा है। लॉकडाऊन की अवधि की स्पष्टता भी तो नहीं हैं। छात्र हों या मजदूर, किराये के मकानों में रहते हैं। उनके मालिक उन्हें कोरोना के डर से निकाल बाहर करना चाहते हैं। प्रधानमंत्री की सनकभरी व अचानक की गई घोषणा से लोगों को घरों तक पहुंचने का मौका ही नहीं मिला। मकान मालिक हों या फैक्ट्री मालिक, सभी ने उनके लिये दरवाजे बंद कर रखे हैं। सड़कों पर वे रह नहीं सकते। वहां पुलिस उन्हें भगा रही है।
चूंकि अब लॉकडाऊन को काफी हद तक सफलतापूर्वक लागू कर लिया गया है और संक्रमण को काबू में लाने की जिम्मेदारी स्वास्थ्यकर्मी बखूबी निभा रहे हैं, केंद्र व राज्य सरकारों को चाहिए कि वे देश भर में फैले व लावारिस हालत में पड़े श्रमिकों को उनके घरों तक पहुंचाने का अभियान चलाएं। इससे उन पर होने वाला खर्च और संक्रमण का खतरा भी कम होगा। हमारे पास लॉजिस्टिक संसाधन उपलब्ध ही नहीं लगभग अनुपयोगी पड़े हैं। बसें, ट्रेनें खाली खड़ी हैं। दो-तीन दिनों की मशक्कत से ये मजदूर उनके अपने घरों तक लाये जा सकते हैं जहां वे सुरक्षित जीवन जी सकें। सरकार का अब मुख्य टास्क यही होना चाहिये।
(देशबन्धु)