देशव्यापी बंदी का पहला सप्ताह बीत चुका है। बीते सात दिनों में कोरोना के मरीजों की संख्या में इजाफा हुआ और मृतकों की संख्या भी बढ़ी। मौतें इसलिए हो रही हैं क्योंकि इस बीमारी की गंभीरता को पहले समझा नहीं गया और उस मुताबिक तैयारी नहीं की गई। लेकिन अभी भी हमारे पास वक्त है कि इसके सामुदायिक प्रसार की आशंका बढ़ने से पहले इसे रोका जाए। इसलिए मर्ज को छिपाने की जगह उजागर किया जाए, अधिक से अधिक लोगों के टेस्ट कराएं जाएं। जितनी जल्दी मरीजों की पहचान कर ली जाएगी, उतनी जल्दी इसकी रोकथाम में मदद मिलेगी।
सरकार और प्रशासन को इस ओर ही पूरा ध्यान लगाना चाहिए, लेकिन वे इस कसौटी पर खरे नहीं उतर रहे हैं। दिल्ली के निजामुद्दीन में मुस्लिम संस्था तबलीगी जमात का हेडक्वार्टर है जहां एक धार्मिक आयोजन मार्च महीने में चल रहा था और कई देशों के लोग इसमें शामिल हुए थे। सरकार एक ओर भीड़ जमा न करने की सलाह दे रही थी, दूसरी ओर उसकी नाक के नीचे सैकड़ों लोग एकजुट थे और सरकार तब जागी, जब इनमें शामिल कुछ लोगों की मौत कोरोना के कारण हुई। दिल्ली के बाद जमात में शामिल लोग अब देश के अलग-अलग प्रदेशों में पहुंच चुके हैं और अब उन सबकी तलाश की कोशिश हो रही है। भाजपा नेता संबित पात्रा ने बिना देर किए इसे आपराधिक मामला करार दिया।
बेशक इसमें जमात के लोगों से लापरवाही हुई है, लेकिन राजनीति की आड़ में इसे धार्मिक रंग देने से पहले यह याद रखना होगा कि अयोध्या में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी भी इसी तरह दर्जनों लोगों के साथ पूजा-पाठ करने पहुंचे थे। अभी बिहार में भाजपा नेता और पूर्व सांसद के घर हो रही शूटिंग को देखने सैकड़ों लोग इकठा हो गए थे। जबकि पूरे देश में इस तरह की भीड़ जुटने-जुटाने पर पाबंदी है। राजनीति में एक दूसरे को नीचा दिखाने की मानसिकता के साथ कोरोना जैसी गंभीर समस्या से नहीं निपटा जा सकता। यह काम केवल समझदारी और दूरदर्शिता के साथ हो सकता है। जैसे इस वक्त मजदूरों की घर वापसी भी कोरोना के साथ एक बड़ी चिंता बन गई है।
सरकार ने पहले इस पर ध्यान नहीं दिया। अब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो सरकार का जवाब था कि सुबह 11 बजे तक एक भी दिहाड़ी मजदूर सड़क पर नहीं है। हो सकता है दिल्ली में ऐसा हो, लेकिन देश तो दिल्ली के बाहर भी है। केरल में भी सैकड़ों मजदूर घरवापसी के लिए बेचैन और परेशान हैं। छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, बिहार, उत्तरप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, केरल, असम, प. बंगाल देश का ऐसा कौन सा कोना है, जहां रोजगार की तलाश में ग्रामीण, आदिवासी नहीं पहुंचते हैं।
संपूर्णबंदी के बाद अब इन सब राज्यों से बसों या ट्रेनों के न चलने के कारण ये कामगार पैदल अपने घरों की ओर लौट रहे हैं। बहुत से जागरूक नागरिक और स्वयंसेवी संगठन खुद से इनके भोजन या आश्रय की व्यवस्था में लगे हैं। अदालत ने सरकार से कहा है कि वह सुनिश्चित करे कि जिन लोगों का प्रवास बंद हुआ है उन सभी का भोजन, आश्रय, पोषण और चिकित्सा सहायता के मामले में ध्यान रखा जाए। यह आदेश सर्वथा उचित और सामयिक है। लेकिन अब इसके साथ राज्य सरकारों को यह कोशिश बढ़ानी चाहिए कि वह देश भर में अपने प्रवासी मजदूरों से संपर्क साध सके। इसके लिए नोडल अधिकारी तैनात करें। छत्तीसगढ़ सरकार ने इस तरह के कदम उठाए हैं। यह काम देशव्यापी स्तर पर होना चाहिए। संपूर्णबंदी में अभी दो हफ्ते बाकी हैं। इस दौरान देश में सामान्य आवाजाही रुकी रहेगी।
लेकिन पर्याप्त सुरक्षा मानकों के साथ बिना काम के, बेघर हो चुके लोगों को उनके घरों तक पहुंचाने का काम यदि छोटे-छोटे स्तरों पर शुरु हो जाए, तो इससे अनावश्यक घबराहट, अफरा-तफरी पर रोक लगेगी। शेल्टर होम्स यानी आश्रय घरों पर बोझ कम होगा। वहां भीड़ कम होगी, तो बीमारी के फैलाव की आशंकाएं भी कम होंगी। सरकार इसमें सेना की मदद भी ले सकती है। इस वक्त हर किसी की पहली प्राथमिकता खुद स्वस्थ रहकर दूसरों को स्वस्थ रहने में मदद करना होनी चाहिए। सरकार ने अब तक जो भी कदम उठाएं हैं, उनका असर तभी देखने मिलेगा, जब खुद सरकार अपनी कमियों को दुरुस्त करे और समाज महामारी से लड़ने की मुहिम में सरकार का पूरा साथ दे।
(देशबन्धु)