-विष्णु नागर।।
संघी अगर जवाहर लाल नेहरू को इतना गरियाते हैं तो उसके ठोस कारण हैं। उस जमाने में बड़े हो रहे करोड़ों भारतीयों में मैं भी एक हूँ, जो नेहरू जी के कारण संघ में जाने से बाल -बाल बच गया। संघ एक अच्छे स्वयंसेवक से वंचित हो गया! मैं वीर रस का कवि बनने से बच गया। संघ अपने विचारक, संगठन मंत्री और भाजपा अपने महासचिव से वंचित हो गई। बहुत नुकसान हो गया उसका।भगवान चाहे तोइसके लिए मुझे माफ न करे!
मेरे छात्र जीवन से बल्कि उससे भी पहले से संघी, सवर्ण वर्ग के किशोरों-युवकों को अपनी ओर खींचने की कोशिश करते रहे हैं। शाजापुर में भी तब शाम को संघ की शाखा लगती थी। मेरे मन में लेकिन उसके प्रति कोई आकर्षण नहीं था।कुछ पढ़ते- लिखते रहने का असर रहा होगा, कुछ नेहरू युग का प्रभाव। शायद दूसरा असर अधिक प्रभावी रहा हो।
उम्र 13-14 रही होगी। मेरा दोस्त जयप्रकाश आर्य (जिसकी बहुत जल्दी मृत्यु हो गई)एक शाम मेरे पास आया। थोड़ी देर बाद उसने कहा-‘चलो शाखा चलते हैं’। ठीक- ठीक याद नहीं कि क्यों मैंने वहाँ जाने की अनिच्छा प्रकट की थी।उसने कहा: ‘अरे यार चलो,वहाँ खेलना-कूदना ही तो है’। उस मित्र के दबाव में एक या दो बार चला गया।फिर जाना बंद कर दिया।
उसके बाद जब कभी सोमवारिया बाजार से चौक की तरफ जाता,संघ के एक स्वयंसेवक अपने घर के ओटले पर खड़े या बैठे मिलते और मुझे बुला लेते। संभवतः उनका अनौपचारिक संबोधन बंडू भैया था।वह कहते -‘आते नहीं, अब विष्णु।एक- दो बार आकर ही रह गए? आना चाहिए तुम्हें’। दो- एक बार तो मैंने उनसे संकोच में कहा-‘अच्छा कल से आऊंगा’।यह शुद्ध बहानेबाजी थी।
जब दो- तीन बार ऐसा हुआ तो उन्होंने मुझे पास बैठाकर कहा-‘असली कारण बताओ, क्यों नहीं आते’? मैंने बता दिया कि आप लोग मुसलमानों को शाखा में नहीं आने देते। उन्होंने कहा कि तुम्हारे घर के चौके में तुम किसी मुसलमान को आने दोगे? हम कोई जन्मजात तो खुली सोचवाले थे नहीं।हमने कहा-‘नहीं,वहाँ तो नहीं आने देंगे’। उन्होंने कहा-‘तो समझ लो शाखा हम हिंदुओं के घर का चौका है,उसमें हम मुसलमानों को आने नहीं दे सकते’।
चौके की ‘पवित्रता’ का यह हामी इस तर्क से सहमत हो गया।मैंने यह भी तर्क दिया कि इसमें जनसंघ के लोग तो आते हैं,बाकी पार्टियों के नहीं।उन्होंने जवाब दिया-‘नहीं ऐसा नहीं है।किसी पार्टी के किसी व्यक्ति पर रोक नहीं’। शायद उन्होंने यह भी कहा कि दूसरी पार्टियों के लोग भी आते हैं।
मेरी दोनों शंकाओं का निवारण कर दिया गया था लेकिन मैं फिर भी नहीं गया तो नहीं गया।इस प्रसंग के पहले या बाद में कभी संघ के किसी शिविर में गोलवलकर आए थे। जिस दिन उनका सार्वजनिक भाषण होना था, उस दिन मैं भी गया था, स्वप्रेरणा से या किसी के कहने पर,यह याद नहीं।उन्होंने क्या कहा, यह स्मरण नहीं। संघ से जो भी संबंध रहा,उसकी यह इति थी। वैसे भी नेहरू-शास्त्री युग में संघ बेहद अप्रासंगिक सा लगता था। मेरे मन में यह छवि भी है कि बेचारा सा लगता था। हाँ जनसंघ की जरूर ऐसी छवि मन मेंं अंकित नहीं है।तब कांग्रेस का विकल्प जनसंघ था। अब कांग्रेस का विकल्प भाजपा है। इतना परिवर्तन अवश्य हुआ है।इससे आगे के परिवर्तन की कोशिशें भी नहीं हुई। यह लगभग पूरे मध्य प्रदेश की अभिशप्त नियति सी है।
मेरी 21 वर्ष की उम्र तक कांग्रेस और जनसंघ में कम से कम शाजापुर में गुंडागर्दी का दौर शुरू नहीं हुआ था।वैचारिकता जो भी हो,तब के नेता भले से, मिलनसार से लगते थे।कभी जनसंघ,कभी कांग्रेस से विधायक रहे रमेश दुबे जरूर दादा जैसे लगते थे मगर तब तक की उनकी छवि भी मेरे मन में दादागीरी वाली अंकित नहीं है।वह लोकप्रिय थे।