-सुनील कुमार
बुरा वक्त कई जरूरी बातों को सोचने का वक्त, मौका, और वजह देता है। अब जैसे आज चारों तरफ इंसानी जिंदगी कोरोना की दहशत और चौकन्नेपन से घिर गई है, तो बहुत से लोग यह भी सोच रहे हैं कि उन्हें कोरोना हुआ तो क्या होगा? कई लोग सोशल मीडिया पर यह सवाल भी उठा रहे हैं कि अगर कोरोना-वार्ड में चौदह दिनों तक कैद रहना पड़ा तो वे क्या करेंगे? कुछ लोगों ने यह दिलचस्प सवाल खड़ा किया है कि ऐसे चौदह दिनों में वे किसके साथ रहना चाहेंगे? अब ऐसा सवाल परिवारों और जोड़ों के बीच एक लड़ाई भी खड़ी कर सकता है, अगर लोग सच बोलना तय करें। वैसे जिंदगी का तजुर्बा इंसानों को इतना तो सिखा ही देता है कि इंसानी मिजाज अधिक सच के लिए बना हुआ नहीं है, और यह भी एक बड़ी वजह है कि भाषा सच के साथ मुच जोड़कर सचमुच लिखती है क्योंकि खालिस सच न पच पाता है, न बर्दाश्त हो पाता है। लेकिन इस मजाक से परे अगर सचमुच ही यह सोचें कि जिंदगी में ऐसा वक्त आ ही गया कि कोरोना ने संक्रामक रोग अस्पताल पहुंचा दिया, और वहां से लौटना न हो पाया, तो उसके लिए अभी से क्या-क्या तैयारी करनी चाहिए।
वैसे तो इंसानी मिजाज इस खुशफहमी में जीने का आदी भी रहता है कि बुरा तो दूसरों के साथ ही होगा, और उन्होंने तो कुछ इतना बुरा किया हुआ नहीं है कि उन्हें कोरोना पकड़ ले। लेकिन ऐसी सोच के बीच भी कम से कम कुछ लोगों को तो यह आशंका सताती होगी कि उन्हें या परिवार के किसी और को अगर कोरोना या ऐसा कोई दूसरा वायरस जकड़ेगा तो क्या होगा, और वे क्या करेंगे? इस किस्म की आशंका जिंदगी में जरूरी भी रहती है ताकि लोग यह सोच सकें कि अगर यह नौबत आ ही गई, और वे अस्पताल से नहीं लौटे, तो कौन-कौन से काम बकाया हैं जिन्हें अभी कर लेना ठीक होगा, और कौन-कौन से ऐसे नेक काम हैं जिनको किए बिना लोग उनको किसी अच्छी बात के लिए याद नहीं कर पाएंगे? ये दोनों ही बातें सोचना जरूरी है क्योंकि लोग अपने बुरे की सोच नहीं पाते हैं, और अपने अच्छे दिनों में जिम्मेदारियों को पूरा कर नहीं पाते हैं, या करने की सोचते ही नहीं हैं।
यह मौका जब लोगों का भीड़-भड़क्के में आना-जाना कम हो रहा है, जब कारोबार कम हो रहा है, जब मामूली सर्दी-खांसी भी लोगों को घर बिठा दे रही है, जब निहायत इमरजेंसी-सफर ही किया जा रहा है, तो हर किसी के पास आज खासा वक्त है। कोरोना ने लोगों की वक्त की फिजूलखर्ची घटा दी है, और जरूरी कामों के लिए कुछ वक्त मुहैया करा दिया है, और कुछ वजहें भी। ऐसे में लोगों को बाहर कम से कम लोगों से मिलने, कम से कम मटरगश्ती करने की एक ऐसी मजबूरी भी है जो उन्हें अपने घर या अपने कमरे में कैद करके रख रही है, और इस मौके का फायदा उठाकर लोग कम से कम अपने कागजात और अपने कबाड़ छांट सकते हैं, और जिंदगी के बकाया कामों को पटरी पर ला सकते हैं। लोग मर्जी की किताबें पढ़ सकते हैं, मर्जी की फिल्में देख सकते हैं, और मर्जी का संगीत सुन सकते हैं। लोग अपनी मर्जी के लोगों के साथ रह सकते हैं, क्योंकि फिजूल के लोगों के साथ उठना-बैठना डॉक्टरी सलाह से सीमित हो चुका है।
अंग्रेजी में कहा जाता है कि हर काले बादल के किनारे पर चांदी सी चमकती एक लकीर भी होती है। लोग अपनी जिंदगी के इस कोरोना-दौर में ऐसी सिल्वर-लाईनिंग देख सकते हैं, और उसका फायदा उठा सकते हैं। बीमारी की दहशत में आए बिना भी अपनी वसीयत कर सकते हैं, जमीन-जायदाद के कागज निपटा सकते हैं, घर में बंटवारा करना हो तो कर सकते हैं, और जिनसे दुश्मनी हो उनसे माफी मांग सकते हैं, या उनको माफ कर सकते हैं। किसी ने लिखा भी है कि अपनी जिंदगी को इस तरह बेहतर बनाया जा सकता है कि कुछ को माफ कर दिया जाए, और कुछ से माफी मांग ली जाए। कोरोना ने आज सभी को ऐसी वजहें दी हैं कि जिनसे मोहब्बत है, और उन्हें पर्याप्त शब्दों में यह बात कही नहीं जा रही है, तो पिटने का डर छोड़कर ऐसी बात कर ही लेनी चाहिए, और किसी नापसंद से ऐसी बात सुननी पड़े, तो उसे पीटना छोड़कर उसे माफ कर देना चाहिए।
अभी किसी ने वॉट्सऐप पर एक मजेदार बात लिखकर भेजी है कि छत्तीसगढ़ के एक स्कूली बच्चे से किसी ने पूछा कि स्कूल की छुट्टी क्यों हो गई है? तो उसका जवाब था- कोरोना तिहार चल रहा है। बात सही है कि अब गर्मी और दीवाली की सिमट गई छुट्टियों के मुकाबले जब अचानक बिन मांगे एक पूरे पखवाड़े की ऐसी छुट्टी मिल जाए, तो वह कोरोना-देवता के त्योहार से कम क्या गिना जाए?
काम-धंधे, नाते-रिश्तेदारी, आवाजाही, और आवारागर्दी से लेकर गप्पबाजी तक, इन सबसे एक पखवाड़े की जो छुट्टी मिली है, उसमें लोगों को अपनी जिंदगी की हमेशा ही लेट चलने वाली ट्रेन को पटरी पर ले आना चाहिए, और लेट को रिकवर करके एक पखवाड़े बाद के प्लेटफॉर्म पर गाड़ी समय पर पहुंचाना चाहिए।
(दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय, 16 मार्च 2020)