-चंद्र प्रकाश झा।।
भारत के लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सर्वप्रथम कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री, ईएमएस नम्बूदरिपाद की लिखी एक किताब याद आती है।किताब का शीर्षक है: क्राइसिस इन टू केओस। यह शीर्षक भारत के मौजूदा उन हालात में बिल्कुल सटीक लगता है, जिनमें भारतीय संघ गणराज्य और उसकी राजसत्ता के संकटों के अर्थनीतिक, सामाजिक और राजनीतिक ही नहीं न्यायिक-संवैधानिक रूप भी गहराने लगे हैं। इस विशेष साप्ताहिक लेखमाला के पूर्व के अंकों में रेखांकित किया जा चुका है कि संकट एक नहीं अनेक हैं, चौतरफा हैं और सब के सब संकट इस कदर गुत्थमगुत्था हैं कि वे कोहराम मचाने की कगार पर पहुंच गये हैं।पूर्व के अंकों में भारत की न्यायपालिका और उसके सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया के कामकाज की ‘पीपुल्स ऑडिट’ यानि जन समीक्षा इंगित करने के बाद अब हम विभिन्न हाईकोर्ट की भी चर्चा करेंगे। जिला आदि की निचली अदालतों और अन्य अधीनस्थ न्यायालयों के कामकाज का भी जिक्र लाजिम होगा।‘इंडिया दैट इज़ भारत’ की राजसत्ता के तीन खम्भों में से सबसे ज्यादा उम्मीद न्यायपालिका से ही रही है, जिसके कारण अस्वाभाविक नहीं हैं। इस उम्मीद के परसेप्शन और वास्तविकता में फर्क उत्तरोत्तर बढ़ता नज़र आ रहा है। इसका ज्वलंत उदाहरण 2020 के दिल्ली दंगों के बारे में सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली हाईकोर्ट के भी ऑब्जर्वेशन, निर्णय और खुरपेंच हैं। दिल्ली के दंगे, उत्तर आधुनिक महाभारत के अंग माने जा सकते हैं।
26 फरवरी 2020 को सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हिंसा के मामले में न्यायिक दखल देने से इनकार कर कहा कि इस मामले में दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायाधीश की बेंच के सम्मुख सुनवाई चल रही है, जिसे 26 फरवरी को ही अपराह्न सत्र में आगे की सुनवाई करनी है। सुप्रीम कोर्ट ने याचिका पर खुद सुनवाई करने से इंकार करने के बावजूद दो टूक कहा कि अगर कोई भड़काऊ बयान दे तो पुलिस आदेश मिलने का इंतजार न करे, बल्कि कानून के मुताबिक कार्रवाई करे।
26 फरवरी 2020 को ही सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (एससीबीए) ने देश में कानून-व्यवस्था को लेकर चिंता व्यक्त करते हुए प्रस्ताव पास कर राजधानी में हिंसा की निंदा की और एससीबीए अध्यक्ष और महासचिव को सामान्य स्थिति बहाल करने में मदद के लिए उचित उपाय करने अधिकृत किया.प्रस्ताव में कहा गया कि ‘एससीबीए हर तरह से कानून के शासन की रक्षा के लिए बनाया गया निकाय है। वह प्रस्ताव करता है कि उसे इस संबंध में अदालत के समक्ष उचित कार्यवाही करनी चाहिए ताकि दिल्ली राज्य में हालात तत्काल सामान्य होने के लिए उचित आदेश मिल सके और विफलता के लिए जिम्मेदार अधिकारी की जवाबदेही तय की जा सके।’
एससीबीए ने सीएए के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों के बीच जनवरी 2020 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्रों के खिलाफ हिंसा में दिल्ली पुलिस की मिलीभगत के खिलाफ भी निंदा प्रस्ताव पारित किया था।
दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, जस्टिस एस मुरलीधर ने दिल्ली दंगों में घायल लोगों को समुचित इलाज और सुरक्षा मुहैया कराने की मांग करने वाली एक आकस्मिक याचिका पर आधी रात अपने आवास पर इजलास लगा कर सुनवाई की। याचिका में कुछ भाजपा नेताओं के खिलाफ दंगा भड़काने के आरोप में मुकदमा दर्ज करने की मांग को लेकर अदालती निर्देश जारी करने की याचना की गई है।सोशल एक्टिविस्ट और पूर्व आईएएस अधिकारी हर्ष मंदेर की इस याचिका में आरोप लगाया गया है कि कपिल मिश्रा, अनुराग ठाकुर, प्रवेश वर्मा जैसे भाजपा नेताओं के भड़काऊ बयान से हिंसा हुई। इसमें उत्तर-पूर्वी दिल्ली में भड़की सांप्रदायिक हिंसा के जिम्मेवार लोगों को गिरफ्तार करने और प्राथमिकी दर्ज करने के निर्देश देने का अनुरोध किया गया।
न्यायमूर्ति एस मुरलीधर और न्यायमूर्ति तलवंत सिंह की बेंच ने इस याचिका पर अगले दिन 26 फरवरी को भी सुनवाई की, जिसके विवरण अदालती मामलों में मील के पत्थर माने जा सकते हैं।अदालत में भाजपा के नेताओं के बयानों के वीडियो क्लिप चलाए गए। दिल्ली उच्च न्यायालय ने भाजपा के तीन नेताओं के नफरत भरे भाषणों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने में दिल्ली पुलिस की नाकामी पर रोष जताया और पुलिस आयुक्त से 27 फरवरी तक ‘सोच-समझकर’ फैसला लेने को कहा। सुनवाई के दौरान हाजिर विशेष अधिकारी को अदालत का क्षोभ दिल्ली पुलिस आयुक्त को ‘बता देने ‘ कहा गया।
बेंच का ऑब्जर्वेशन था: पुलिस जब आगजनी, लूट, पथराव की घटनाओं में 11 प्राथमिकी दर्ज कर सकती है तो उसने उसी तरह की मुस्तैदी तब क्यों नहीं दिखाई जब भाजपा के तीन नेताओं-अनुराग ठाकुर,प्रवेश वर्मा और कपिल मिश्रा के कथित नफरत वाले भाषणों का मामला उसके पास आया। इन मामलों में प्राथमिकी दर्ज करने के संबंध में आपने उसी तरह की तत्परता क्यों नहीं दिखायी? हम शांति कायम करना चाहते हैं। हम नहीं चाहते हैं कि शहर फिर से 1984 की तरह के दंगों का गवाह बने। शहर काफी हिंसा और आक्रोश देख चुका है। 1984 को दोहराने मत दीजिए।”
अदालत ने अपने आदेश में उल्लेख किया कि विशेष पुलिस आयुक्त प्रवीर रंजन ने आश्वस्त किया है कि वह खुद पुलिस आयुक्त के साथ बैठेंगे और सारे वीडियो क्लिप को देखेंगे और एफआईआर दर्ज करने के मुद्दे पर सोच-समझकर फैसला करेंगे और 27 फरवरी को अदालत को अवगत कराऐंगे। अदालत ने साफ कर दिया कि वह इन तीन नेताओं के वीडियो क्लिप तक मामले को सीमित नहीं कर रही है और अदालत अन्य क्लिप पर भी गौर करेगी।
मामले में केंद्र को पक्षकार बनाने के लिए सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता की अर्जी पर पीठ ने याचिकाकर्ता- मानवाधिकार कार्यकर्ता हर्ष मंदर और कार्यकर्ता को नोटिस जारी किया। याचिकाकर्ता के वकील कोलिन गोंजाल्विस ने कहा: आश्चर्यजनक है कि सरकार के वरिष्ठ विधि अधिकारी सुझाव दे रहे हैं कि एफआईआर दर्ज करने के लिए इंतजार करना चाहिए।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने दिल्ली पुलिस की ओर से दलील पेश कर कहा कि 26 फरवरी को कोर्ट ने आदेश जारी कर जवाब मांगा था। कोर्ट ने कहा था कि भड़काऊ बयान पर कार्रवाई की जाए। ये बयान एक से दो महीने पहले दिए गए थे। याचिकाकर्ता केवल तीन भड़काऊ बयानों को चुनकर करवाई की मांग नहीं कर सकता। हमारे पास इन तीन‘ हेट स्पीच‘ के अलावा कई और भी हेट स्पीच के वीडियो हैं,जिसे लेकर शिकायत दर्ज कराई गई है। एफआईआर दर्ज करने का यह उचित समय नहीं है। उचित समय पर केस किया जाएगा।
दिल्ली सरकार के वकील राहुल मेहरा ने पूछा: जब दिल्ली दंगों के संबंध में 11 एफआईआर पहले ही दर्ज की जा चुकी हैं, तो अभद्र भाषा के लिए एफआईआर क्यों नहीं दर्ज की गई? इस पर चीफ जस्टिस डीएन पटेल ने पूछा: ”11 एफआईआर दर्ज की गई हैं ? सॉलीसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि कल तक हमने 11 और आज 37 एफआईआर दर्ज की हैं। कुल 48 एफआईआर दर्ज की गई हैं। याचिकाकर्ता इस पर एफआईआर चाहता है कि कपिल मिश्रा ने ऐसा किया या वारिस पठान ने ऐसा किया। मौत या आगजनी या लूटपाट होने पर हमें एफआईआर दर्ज करनी होती है। अन्य मुद्दों में समय लगता है। हाईकोर्ट ने जवाब दाखिल करने के लिए दिल्ली पुलिस को 13 अप्रैल तक का समय दे दिया और गृह मंत्रालय को भी दिल्ली हिंसा मामले में पक्षकार बनाने की दलील मान ली। दिल्ली के उपराज्यपाल अनिल बैजल ने कोर्ट में दिल्ली पुलिस का प्रतिनिधित्व करने के लिए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता और तीन अन्य को नियुक्त किया है। गृह विभाग के आदेश के अनुसार अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल मनिंदर कौर आचार्य, वरिष्ठ अधिवक्ता अमित महाजन और रजत नायर भी इस तरह के मामलों में दिल्ली पुलिस का प्रतिनिधित्व करेंगे।
जस्टिस मुरलीधर ने 26 फरवरी को मामले की सुनवाई 27 फरवरी तक के लिए स्थगित कर दी। लेकिन 26 फरवरी की ही देर रात जस्टिस मुरलीधर का पहले से पंजाब एवं हरियाण हाई कोर्ट स्थानांतरण आदेश को अधिसूचित कर उन्हें दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायाधीश के पद भार से मुक्त कर दिया गया। सच है कि उनका स्थानांतरण आदेश पहले से था। लेकिन उसे आनन फानन में रात के अंधेरे में अधिसूचित करने का शायद यही कारण था कि उनकी न्यायिक सक्रियता से मोदी सरकार घबरा गई। वो मामला आगे की सुनवाई के लिए दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, जस्टिस डीएन पटेल और जस्टिस सी हरिशंकर की पीठ को सुपुर्द कर दिया गया। उस पीठ ने सुनवाई 13 अपैल तक टाल दी. यह प्रकरण, उत्तर आधुनिक महाभारत ही है, जिसके मायने और खुलने बाकी हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने 4 मार्च को दिल्ली हाई कोर्ट को निर्देश दिया कि वह दिल्ली दंगो के बारे में याचिकाओ पर सुनवाई छह मार्च को ही करे क्योंकि इनकी सुनवाई लम्बे अर्से तक टालने का न्यायिक ओचित्य नहीं है और वह अनावश्यक भी है.सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एस ए बोबडे, जस्टिस बी आर गवई और जस्टिस सूर्यकांत की पीठ ने यह निर्देश इस मुद्दे पर दंगा प्रभावित लोगो और मंदेर की याचना पर दिये.मंदेर ने ऐसी ही एक याचिका दिल्ली हाई कोर्ट में भी दाखिल कर रखी है.
• सीपी नाम से ज्यादा ज्ञात पत्रकार-लेखक चंद्रप्रकाश झा फिलवक्त अपने गांव से विभिन्न समाचारपत्र, पत्रिकाओं के लिए और सोशल मीडिया पर नियमित रूप से लिखते हैं। उन्होंने हाल में न्यू इंडिया में चुनाव, आज़ादी के मायने, सुमन के किस्से और न्यू इंडिया में मंदी समेत कई ई-बुक लिखी हैं, जो प्रकाशक नोटनल के वेब पोर्टल http://NotNul.com पर उपलध हैं। लेखक से [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है।