दिल्ली हिंसा में पीड़ितों को न्याय कब तक मिलेगा, दोषियों को सजा कब तक होगी, इंसाफ जल्द मिलेगा, या तारीख पर तारीख मिलते-मिलते बरसों गुजर जाएंगे, ऐसे कई सवाल इस वक्त समाज के संवेदनशील लोगों के मन में हैं। इनके जवाब तो शायद अभी न मिलें, फिलहाल सुप्रीम कोर्ट से एक अहम निर्देश सामने आया है। सुप्रीम कोर्ट ने भड़काऊ भाषण देने के खिलाफ दायर याचिका पर इसी शुक्रवार को सुनवाई करने का निर्देश दिल्ली हाईकोर्ट को दिया है। दरअसल 26 फरवरी को दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस एस. मुरलीधर और जस्टिस तलवंत सिंह की पीठ ने दिल्ली पुलिस कमिश्नर को निर्देश दिया था कि वे भाजपा नेताओं अनुराग ठाकुर, कपिल मिश्रा, परवेश वर्मा और अभय वर्मा सहित अन्य के खिलाफ कथित तौर पर दिए गए भड़काऊ भाषणों को लेकर एक दिन के अंदर फैसला करें। हालांकि, उसी रात केंद्र सरकार ने जस्टिस मुरलीधर का पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में तबादले का आदेश जारी कर दिया था। इसके अगले ही दिन 27 फरवरी को दिल्ली हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस डीएन पटेल और जस्टिस सी. हरिशंकर की एक अन्य पीठ ने मामले की सुनवाई 13 अप्रैल तक टाल दी थी। पीठ ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता की इस दलील का संज्ञान लिया था कि यह एफआईआर दर्ज करने का सही समय नहीं है। लेकिन अब शीर्ष अदालत ने कहा है कि, न्याय के हित में हाईकोर्ट को निर्देश दिया जाता है कि मामले की सुनवाई शुक्रवार को करे। हेट स्पीच समेत इस हिंसा से जुड़ी सभी याचिकाओं पर शुक्रवार को सुनवाई की जानी चाहिए। शीर्ष न्यायालय ने कहा कि हाईकोर्ट मामले की यथासंभव जल्द सुनवाई करे और नेता लोगों से बात करें। सीजेआई एस ए बोबड़े ने यह भी कहा कि, ‘जब हाईकोर्ट मामले की सुनवाई कर रहा है तब हम उसका अधिकार नहीं लेना चाहते हैं। लेकिन ऐसे मामलों को ज्यादा देर तक नहीं खींचना चाहिए।’ वहीं, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि भड़काऊ भाषण दोनों तरफ से दिए गए और इसलिए इस मौके पर एफआईआर दर्ज करने से शांति प्रभावित हो सकती है।
सॉलिसिटर मेहता कानून के जानकार हैं, लिहाजा वे जानते होंगे कि एफआईआर दर्ज करने से शांति भंग नहीं होती, शांति तब भंग होती है, जब पुलिस अपना दायित्व निभाने में चूकती है और राजनेता उसे ऐसा चूक करने का मौका देते हैं। दिल्ली मामले में सरकार और पुलिस दोनों की भूमिका संदिग्ध है। सरकार ने तो भाजपा के भड़काऊ बयानवीरों पर कोई नकेल नहीं कसी, लेकिन गनीमत है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस ओर ध्यान दिया है। भड़काऊ भाषण चाहे कोई भी दे, उस पर त्वरित कानून कार्रवाई होनी चाहिए। मगर दिल्ली मामले में यह देखा गया कि एक के बाद एक भाजपा नेता समाज के एक तबके के लिए, सरकार के विरोधियों के लिए नफरत भरी बातें करते रहे, लोगों को हिंसा के लिए उकसााते रहे, मगर न सरकार ने उन्हें रोकने की कोई कोशिश की, न पुलिस को तब शांति भंग होने का खतरा नजर आया। सरकार का रवैया अब भी अपने लोगों को बचाने वाला नजर आ रहा है। देखना होगा कि हाईकोर्ट में भाजपा नेताओं को बचाने के लिए किस किस्म की दलीलें दी जाती हैं। फिलहाल संसद में भी सरकार दिल्ली मामले पर अपनी जिम्मेदारी से बचने की कोशिश कर रही है। कांग्रेस, टीएमसी समेत कई विपक्षी दल रोजाना सरकार से इस मसले पर चर्चा की मांग कर रहे हैं। लेकिन लोकसभा और राज्यसभा दोनों ही सदनों में होली के बाद चर्चा के लिए समय दिया जा रहा है। मानो सरकार अपने बचाव के लिए कोई शुभ मुहूर्त देख रही है। होली तो सभी बुराइयों, नफरतों को भुला कर प्रेम से मिलजुल कर रहने का त्यौहार है। क्या बेहतर नहीं होता कि सरकार होली के पहले ही दिल्ली दंगों पर विपक्ष के सवालों के जवाब दे देती, ताकि देश के सामने कोई अच्छा संदेश जाता। यूं भी दंगों जैसे संवेदनशील और गंभीर मामले पर संसद में चर्चा सबसे पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। मगर शायद सरकार की प्राथमिकताओं में सांप्रदायिक सद्भाव शामिल नहीं है।
संसद को तो देश की सबसे बड़ी पंचायत कहा जाता है। यहां जनता के चुने हुए प्रतिनिधि ही पहुंचते हैं, जिनका दायित्व है कि वे जनता के हित की बात सदन में करें। इसलिए जब विपक्ष चर्चा की मांग कर रहा है, तो सरकार को अपनी जवाबदेही निभानी चाहिए। पर उसकी जगह सरकार टालमटोल कर रही है। होली के बाद शायद वह अपने बचाव की बेहतर तैयारियों के साथ आना चाहती है। संसद में चल रही इस टालमटोल पर तो शीर्ष अदालत ने कुछ नहीं कहा है, लेकिन समय आने पर शायद जनता की अदालत में इसका फैसला होगा।
(देशबंधु में आज का संपादकीय)