केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कोलकाता में एक रैली को संबोधित करते हुए एक बार फिर से स्पष्ट कर दिया है कि नागरिकता संशोधन कानून का चाहे कोई कितना भी विरोध कर ले, केन्द्र सरकार इससे पीछे हटने वाली नहीं है। इसमें नई बात कुछ भी नहीं है। अनेक मौकों पर शाह के अलावा प्रधानमंत्री मोदी और कई भाजपा मंत्रियों, नेताओं तथा सहयोगी संगठनों ने इसे कई बार जतला दिया है। नई बात तो इसमें यह है कि पिछले हफ्ते दिल्ली में हुए भीषण दंगों के बाद भी शाह की तल्$खी और हठधर्मिता कायम है। यह वैसी ही चुनौती देने वाली भाषा है जिसके लिए मोदी और शाह जाने जाते हैं तथा जिस तरह की जुबान के चलते पूरे देश में तनाव का माहौल है और दिल्ली उसे भुगत चुकी है।
रैली में शाह ने बताया कि हर शरणार्थी को नागरिकता देना इस कानून का उद्देश्य है। यहां तक तो ठीक था लेकिन उनका वह सलीका अब भी बना हुआ दिखा जो सामंजस्य नहीं टकराव में भरोसा करता है। ये वे ही संवाद हैं, जिनके कारण देश आज परस्पर नफरत, संवादहीनता, सामाजिक तनाव और टकराव के रास्तों पर लगातार बढ़ रहा है। उनका पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से यह पूछना कि ‘आपको घुसपैठिये ही क्यों अपने लगते हैं’ या ‘जो हमारी शांति में दखल देगा उसके घर में घुसकर मारना हम जानते हैं’ अथवा ‘किसी ने भारत की ओर आंख उठाई तो घर में घुसकर मारेंगे’ आदि वाक्यों का इस्तेमाल न केवल अप्रासंगिक है बल्कि वर्तमान परिस्थितियों में अनपेक्षित भी है। वह इसलिए क्योंकि ऐसा कहे बिना भी आप दुश्मन देश के घर घुसकर मारेंगे ही जिसकी सैन्य रक्षा प्रणाली में पहले से स्वीकृति है और ऐसा भारत ने पहले भी किया है।
घुसपैठिये को कोई मुख्यमंत्री किसलिए चाहेगा, इसका भी ऐसे आरोप लगाने वाले के पास कोई खास स्पष्टीकरण नहीं होता लेकिन यह वक्त ऐसे नरेटिव का है जब शब्दों के इन इस्तेमालों से आप लोगों को अपरिभाषित व कल्पित राष्ट्रवादी अवधारणाओं से जोड़ते हैं, उत्तेजना व सनसनी का निर्माण करते हैं तथा अपने ही समाज के कुछ लोगों को देश का दुश्मन बताकर राजनैतिक फायदा उठाते हैं। यह पिछले 5-6 वर्षों से हम लगातार देख रहे हैं लेकिन दिल्ली के दंगों के बाद भी हमने यह भाषायी संस्कृति को जारी रखने का मानो निश्चय सा कर रखा है, जो आश्चर्य और दुख की बात है। इस भाषा ने देश का माहौल पिछले कुछ समय में काफी बिगाड़ा है। ऐसा नहीं कि कोई एक पक्ष ही इसका जिम्मेदार हो।
जुबानी जंग सभी विचारधाराओं और पार्टियों की ओर से जारी है लेकिन सत्ताधारी दल और देश के संचालन की जिम्मेदारी जिस व्यक्ति या संगठन पर होती है उसका उत्तरदायित्व इस कटुता और नफरत को बढ़ाना नहीं बल्कि उसे खत्म करना होता है। फिर, इस तेजाबी ज़ुबानों और अंगार बरसाते शब्दों ने पिछले हफ्ते ही दिल्ली और देश को दंगा भेंट किया है। देश की राजधानी में अब भी लोगों की लाशें मिल रही हैं, लोग अपने जले और बर्बाद हुए आशियानों के बीच जीवन को फिर से खड़ा करने के रास्ते ढूंढ रहे हैं। दिल्ली में अब ऐसी कहानियां भी सामने आ रही हैं जिसमें कहीं हिन्दुओं ने मुसलमानों को बचाया है तो कहीं मुसलमानों ने हिन्दुओं को। यानी आस अब भी बाकी है और सब कुछ खत्म नहीं हुआ है।
लोगों के एक बार फिर से साम्प्रदायिक सद्भाव, सामाजिक मेल-मिलाप और भाईचारे की न केवल तलाश है बल्कि उसमें उम्मीदें भी बकाया हैं। इन उम्मीदों को हरा करना और लोगों के जीवन को फिर से पटरी पर लाना हमारी वरीयता में तो है लेकिन गृह मंत्री होने के नाते शाह के कोलकाता में दिए भाषण में यह कहीं भी नजर नहीं आया। गृह मंत्री होने के कारण इन दंगों की जिम्मेदारी सीधे-सीधे अमित शाह पर है क्योंकि दिल्ली की पुलिस केन्द्र सरकार को ही रिपोर्ट करती है।
जिस वक्त वहां दंगे चल रहे थे, उस वक्त पूरी भारत सरकार दुनिया के सबसे ताकतवर राष्ट्रप्रमुख अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की खातिरदारी में जुटी थी और सत्ताधारी दल अर्थात भारतीय जनता पार्टी व उसकी पितृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से उम्मीद थी कि, जैसा कि वे दावा करते रहे हैं, दंगाग्रस्त इलाकों में जाकर लोगों को राहत पहुंचाते। अमित शाह सरकार का प्रतिनिधित्व करते हैं तो उनसे अधिक उम्मीद थी कि दिल्ली में हुए कौमी टकराव के बारे में वे कुछ कहते। वे देश को आश्वस्त करते कि दंगों के दोषियों को वे बगैर भेदभाव के सलाखों के पीछे डालेंगे, जैसा कि वे 1984 के सिखों के नरसंहार के बारे में मांग करते रहे हैं।
उनसे यह भी अपेक्षा थी कि वे देश को यह भी जानकारी देते कि जो लोग इन दंगों में तबाह हुए हैं उन्हें फौरी तौर पर राहत पहुंचाने, घायलों को अच्छा उपचार उपलब्ध कराने, बेवा और अनाथ हो गए बच्चों को दीर्घकालीन मदद के लिए उनकी सरकार के पास क्या योजना है। न तो उन्होंने इन दंगों में मारे गए लोगों के प्रति कोई संवेदना या व्यथा व्यक्त की और न ही अपनी ज़ुबान से मरहम रखने का प्रयास किया। हमेशा की तरह वे चुनावी मोड में दिखे या अदृश्य-अनाम दुश्मनों को ललकारते हुए नजर आए। वे यह भूल गए कि इस वक्त खतरा सीमा पर नहीं बल्कि देश के भीतर परस्पर घृणा और लोगों की आक्रामकता के रूप में देश के सामने उपस्थित हो गया है।
लोगों के बीच उत्पन्न विभाजन को खत्म करने के लिए उनसे अगुवाई की अपेक्षा है, न कि इस खाई को बढ़ाने की। विपक्षी पार्टी की सरकारों के प्रमुखों के लिए इस तरह की भाषा और वह भी ऐसे माहौल में जब देश झुलस रहा है, समाज को किस तरह से फायदा पहुंचाएगी, यह शाह ही बतला सकते हैं। यह समय देश के घावों पर मरहम लगाने का है, न कि उस पर तेजाब छिड़कने का।
(देशबंधु में आज का संपादकीय)