अगर लोकतंत्र कोई परीक्षा है तथा उसका एक विषय दिल्ली की हालिया घटनाएं हैं तो कहा जा सकता है कि विशेष प्रवीणता के साथ भारत की न्यायपालिका शानदार ढंग से उत्तीर्ण हुई है और जिस आम आदमी पार्टी पर देश की जनता को बहुत बड़ा भरोसा था, वह और उसके कभी चमत्कारी नेता कहे जाने वाले अरविंद केजरीवाल बुरी तरह से नाकाम रहे हैं। अरविंद केजरीवाल ने लोगों को न सिर्फ निराश किया बल्कि उनकी भूमिका पिछले 3-4 दिनों से दिल्ली में हुए हिंसक घटनाक्रम के बीच बेहद शर्मनाक रही है। इससे उनकी न केवल लोकप्रियता घटी है बल्कि उनके राजनैतिक भविष्य को लेकर जो आशाएं थीं, वे भी काफी कुछ धूमिल हुई हैं।
पहले न्यायपालिका की भूमिका पर बात कर लें! शनिवार रात से दिल्ली का माहौल बिगड़ गया था। एक तरफ केन्द्र सरकार अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की खातिरदारी में व्यस्त थी, दिल्ली के अनेक इलाकों में हिंसा हो रही थी। शाहीन बाग को खाली कराने की जिम्मेदारी आप पार्टी से निकलकर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुए तथा पिछले महीने हुए विधानसभा चुनाव में सीट गंवाने के बाद कपिल मिश्रा ने ले ली थी- असंवैधानिक। एक तरह से वे अपनी पार्टी के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के नये प्रभारी बन गए थे- अघोषित। हालांकि परिवेश वर्मा और केन्द्रीय राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर जैसे लोगों ने पहले ही चुनाव प्रचार के दौरान इस माहौल की शानदार पिच तैयार कर दी थी। चुनाव आयोग ने हल्के-फुल्के कदम उठाए और पुलिस विभाग चुप रहा। जेएनयू, एएमयू, जामिया मिलिया इस्लामिया में इस सांप्रदायिक टकराव की भरपूर रिहर्सल हो चुकी थी। दिल्ली पुलिस केन्द्र सरकार को रिपार्ट करती है, यह कारण अन्य पार्टियों के लिए चुप रहने का कोई सबब नहीं बनता लेकिन हमारे लगभग सारे राजनैतिक दल युवाओं और छात्रों को उग्र हिंदूवादी मानसिकता के छोकरों और संगठनों के लोगों द्वारा पिटने के लिए अकेले छोड़ दिए गए। यहां तक कि दिल्ली में पिछली विधानसभा में 67/70 और इस बार 62/70 से जीत दर्ज करने वाले आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी वैसा दमदार हस्तक्षेप नहीं कर सके जैसी कि किसी जनांदोलनों से निकले अपेक्षाकृत युवा नेता से होती है।
लगभग तीन दिन चली हिंसा से दिल्ली में 1984-दो बनाने की रंगभूमि सज चुकी थी। इस बीच शाहीन बाग में नागरिकता विरोधी कानूनों को लेकर करीब 2 माह से जारी प्रदर्शन को हटाने के लिए दाखिल की गई याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए यह तो माना गया कि धरना-प्रदर्शन करना लोकतांत्रिक अधिकार है परंतु दूसरे नागरिकों की आजादी को अबाधित रखने की कीमत पर नहीं। उन्हें वहां से हटने के लिए राजी करने हेतु वार्ताकार की नियुक्ति हुई जिससे एक पैनल बना। वार्ताकारों ने आंदोलनकारियों से हटने की गुजारिश तो की परंतु बातचीत किसी नतीजे पर नहीं पहुंची क्योंकि उन्होंने धरना स्थल छोड़ने से इंकार कर दिया। यहां अपनी खोई हुई राजनैतिक जमीन की कपिल मिश्रा की तलाश पूरी हुई। पहले उन्होंने कहा कि एक बार अमेरिकी राष्ट्रपति स्वदेश रवाना हो जाएं फिर वे अपने लोगों के साथ उतरेंगे। ऐसा उन्होंने करके भी दिखा दिया। इस दौरान केन्द्र सरकार, पुलिस प्रशासन और दिल्ली सरकार खामोश न•ाारा देखती रही। दिल्ली के अनेक इलाकों में हिंसा फैल गई। मौतें, आगजनी, तोड़-फोड़- वह सब हुआ जो दंगे अपने पीछे छोड़ जाते हैं।
ऐसे में भारतीय न्यायपालिका लोकतंत्र के लिए आशा की किरण और जनता की सुरक्षा ढाल बनकर परिदृश्य में दाखिल हुई। दिल्ली हाई कोर्ट ने सॉलीसीटर जनरल को आदेश दिया कि वे तीनों भाजपा नेताओं (कपिल-परिवेश-अनुराग) के खिलाफ हिंसा व नफरत फैलाने के लिए एफआईआर दर्ज करने की पुलिस आयुक्त को सलाह दें। सुप्रीम कोर्ट ने भी दिल्ली पुलिस को फटकार लगाई कि अगर वह सक्रिय होती तो लोगों की जान बच जाती। ट्रम्प की खातिरदारी से फुरसत तथा न्यायपालिका की फटकार पाकर केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कई बैठकें कीं। प्रधानमंत्री के सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल हिंसाग्रस्त इलाकों में घूम-घूमकर सांत्वना बांटते फिरने लगे, कांग्रेसाध्यक्ष सोनिया गांधी ने केन्द्र व दिल्ली सरकार को पूरी तरह फेल बताया, कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कुछ लोगों पर जान-बूझकर हिंसा फैलाने का आरोप लगाया तथा प्रियंका गांधी ने शांति मार्च निकाला व रोके जाने पर धरना दे दिया- …और इस तरह सबने अपनी जिम्मेदारियां पूरी कर लीं। खरी उतरी तो न्यायपालिका!
… और आम आदमी पार्टी की क्या कहें! कुछ ही दिन पहले दिल्ली चुनावों में भाजपा को चुनावी मैदान में दोबारा धूल चटाने वाली पार्टी के बारे में लोगों की उम्मीद बेतरह बढ़ चली थी। कहा जाने लगा था कि अब उसके देशव्यापी प्रसार का वक्त आ गया है। भावनात्मक मुद्दों के मुकाबले बुनियादी मसलों की जीत के हीरो बनकर एक बार फिर उभरने वाले केजरीवाल इस दौरान कुछ ऐसे शांत बैठे रहे मानों दिल्ली उनका कार्यक्षेत्र ही नहीं। अब वे बेशक कह रहे हैं कि दिल्ली में हिंसा बेकाबू हो गई है, पुलिस फेल है, अन्य इलाकों में भी कर्फ्यू लगे तथा सेना बुलाई जाए। केजरीवाल और आप के मंत्री-विधायक दंगों के दौरान कहीं न•ार नहीं आए। पुलिस चाहे उनके तहत न हो परंतु उन्होंने अपने नैतिक बल का भी इस्तेमाल नहीं किया। दिल्ली सरकार के ही बनाए एक स्कूल में ट्रम्प की धर्मपत्नी मेलानिया गईं जिसमें स्वयं केजरीवाल व सिसोदिया को आमंत्रित तक नहीं किया गया। शायद उन्हें अपमान सहने की आदत डालने के लिए ऐसा किया गया होगा और वाकई उन्होंने इसका विरोध नहीं किया। उसी तर्ज में दंगों से भी दिल्ली सरकार अनुपस्थित रही। राहत कार्यों से भी दूर। विवेकानंद आश्रम व मदर टेरेसा के साथ काम करने वाले और मेग्सेसे अवार्डी केजरीवाल का यह संवेदनहीन चेहरा अनपेक्षित तो रहा ही, उन लोगों के लिए सदमे से कम नहीं रहा जो उनमें अगले मुख्य विपक्षी नेता की तलाश कर रहे थे- लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष अवाम के बतौर मुख्य प्रतिनिधि। केजरीवाल ने अनचाहे ये भी संकेत दे दिये हैं कि वे नीतीश कुमार, ममता, अखिलेश जैसे नेताओं की तरह दिल्ली में अपनी सीमित सत्ता के साथ संतुष्ट हैं। इस धारणा को भी उन्होंने मजबूत करने का काम किया है कि वे भाजपा की बी टीम हैं।
(देशबंधु में आज का संपादकीय)