-श्याम मीरा सिंह।।
कल के फेसबुक लाइव में इन तस्वीरों को देखा. सूरत में ये औरतें शाहीनबाग की तरह सड़कों पर उतरीं हुईं हैं. चार औरतें स्टेज पर हैं, चारों एक विशेष परिधान से ढकी हुई, चारों आंख से लेकर, नाक, गला, हाथ, घुटने, सबपर काले कपड़े में तहबन्द. सामने सुनने वाली औरतों की भीड़ है, सब उसी विशेष परिधान में ढकी हुई हैं.

राजनीति विज्ञान की दृष्टि से देखा जाए तो इस तस्वीर से खूबसूरत क्या तस्वीर हो सकती है? इस पल से सुंदर क्या कोई सुंदर पल हो सकता है? औरतें जिनकी जुबान पर धर्म और मर्दों ने ताले जड़े हुए हैं, उनकी जुबानों पर आज इंकलाब है. लेकिन इसी तस्वीर को सामाजिक विज्ञान की दृष्टि से देखा जाए तो ये बेहद डरावनी और घृणित तस्वीर है, इससे अधिक दुर्भाग्य कहां…
मेरा सवाल इन औरतों से नहीं है. क्योंकि मैं जानता हूँ इन औरतों के हाथ कुछ भी नहीं. चूंकि मैंने अपने घर की औरतें देखी हैं. किस तरह घर में मर्दों का एकछत्र शासन चलता है जहां माँ की भूमिका परोक्ष-अपरोक्ष रूप से एक अवैतनिक नौकरानी से अधिक नहीं. सैंकड़ों बार पिता से माँ को पिटते देखा है. मुझे याद है मेरी बहनें कैसे मर्दों की इच्छाओं के नीचे दबकर रह जातीं थीं. इसलिए मेरा सवाल इन औरतों से है ही नहीं.
मेरा सवाल मर्दों से है. क्योंकि आज यदि कोई औरत सड़क पर है तो इसमें एक अनकही अनुमति मर्दों की है मुझे मालूम है. लेकिन मुझे शक है जो मर्द अपनी नागरिकता की चिंता में है, जिसे अपनी आजादी प्यारी है, वह अपनी बीबी की स्वतंत्रता के प्रति उतना संवेदनशील है भी कि नहीं? मुझे इस पर पूरा शक है. क्योंकि मैंने अपने घर के मर्द देखें हैं, पिता देखा है, भाई देखा है. औरतों के मामले में, मुझे मर्दों के नारों पर शक होता है.
मनुवाद से आजादी की जरूरत हिंदुओं को है, मुस्लिमों को भी है, लेकिन घर में शरीयत लागू करके मनु से आजादी का नारा बेतुका रह जाता है. लोकतंत्र और संविधान की दुहाइयों में औरतों की अनगिनत चीखों को भी शामिल करना चाहिए. ब्राह्मणवाद, आपके मौलवीवाद से पृथक नहीं है. तानाशाही, आपकी मर्दशाही से पृथक नहीं है. मनुस्मृति और शरीयत-हदीस में कोई अधिक अंतर नहीं है.
आपको बाजार में अपनी दाढ़ी पकड़े जाने की चिंता है, तो आपको अपनी औरतों की वर्षों पुरानी घुटन की भी चिंता होनी चाहिए. जिसकी घर मे ऊंची आवाज भी आपके अभिमान पर चोट कर जाती है.
कुरान जब तक मुहम्मद के मुंह पर रही थी, पवित्र थी, लेकिन जैसे ही मौलवी-मुल्लों के मुंह पर आई, उसमें मिलावट कर दी गई, घालमेल कर दिया गया. तबसे लेकर आज तक इस्लाम में एक इंच का भी बदलाव नहीं आया. औरतें आपके लिए भैंस-गाय पशुओं से अधिक नहीं रहीं. इस्लाम धर्म ने औरतों को बंधक बनाया हुआ है. वर्षों होने के बावजूद एक चूं करने वाली आवाज को भी आपने मनुवादियों की तरह ही कुचल दिया.
धार्मिक-सामाजिक सुधारों को कुचलकर आपने किसी अन्य धर्म की हानि नहीं की, सिर्फ अपनी की, अपने बच्चों की की. अपनी आने वाली पीढ़ियों की की।
बुर्का या पर्दा एक कपड़ा भर नहीं, बल्कि औरतों पर मर्दों के नियंत्रण का सूचक है. जहां औरतों को उनकी मर्जी के कपड़े पहनने की स्वतंत्रता है वहां उसे स्कूल जाने की स्वतंत्रता भी होती है, अपनी पसन्द का पति चुनने की भी होती है. देर शाम घर लौटने की आजादी भी होती है, नए दोस्त बनाने की भी होती है. दूसरे मजहब के लड़कों से बातें करने की भी आजादी होती है. कपड़ों की स्वतंत्रता, जीने की स्वतंत्रता से पूरी तरह जुड़ी हुई है.
शहर की किसी लड़की के लिए बुर्का चॉइस हो सकती है, जैसे हिंदुओं में साड़ी. लेकिन गांव की औरत के लिए बुर्का चॉइस नहीं है, उसके लिए बुर्का एक कपड़ा भर नहीं है बल्कि मर्दों का एक आदेश है, जिसका पालन अनिवार्य है. बुर्का अलिखित, अघोषित धार्मिक आदेश है.
चॉइस होती तो पूरी भीड़ में कोई एकजन उस परिधान में दिखती, लेकिन यहां मंच से लेकर श्रोताओं तक एक ही तरह का परिधान है, ये मर्दों का सामाजिक अनुशासन है जिसकी शक्ति का स्रोत धर्म है, शरीयत है, हदीस है.
पूरी भीड़ के लिए एक खास कपड़ा चॉइस नहीं हो सकता.
इस तस्वीर को देखकर जितनी घृणा मर्दों से हो रही है, जितनी घृणा धर्म और आपकी कथित परम्पराओं से हो रही है. उतनी ही ईर्ष्या मुझे इन औरतों के भाग्य से हो रही है. इन औरतों को आज सड़क पर आने का मौका मिल गया, जो इनके आत्मविश्वास को एक स्तर से ऊपर ले जाने वाला है.
पता नहीं मेरे घर की औरतों को ये मौका कब मिल पाएगा.
मुझे यकीन है जो औरतें मर्दों के लिए एक तानाशाह सत्ता से लड़ सकती है, अपनी आजादी के लिए एक न एक दिन मर्दों का मुंह भी नोच सकती है.