-राजीव मित्तल।।
जम्मू – कश्मीर के डीएसपी देविंदर सिंह की गिरफ्तारी ने हिंदी पत्रकारिता को मैदान में खेल रही अपनी टीम के खिलाड़ियों को पानी पिलाने वाला बारहवां खिलाड़ी साबित कर दिया..वो बारहवां खिलाड़ी तो कभी भी टीम में शामिल हो कर खेल सकता है लेकिन हिंदी पत्रकारिता तो अब स्थायी भाव से यही कर्म कर रही है..
यहां पर जबलपुर नई दुनिया का किस्सा याद आ गया कि 2008 की मई में शिवराज सिंह चौहान सरकार के एक मंत्री (कोई बिश्नोई ) के रिश्तेदार के यहां करोड़ों रुपए बरामद हुए..यह खबर जबलपुर संस्करण में बैनर के रूप में छापी क्योंकि मध्यप्रदेश के किसी अखबार के पास वो खबर नहीं थी..इस छपी खबर पर सबसे शर्मनाक रवैया इंदौर में बैठे नई दुनिया के ग्रुप एडिटर का था जिसने अपनी मोटी कमाई पर आंच आती देख खूब हल्ला मचाया और अखबार के मालिकों को बरगलाया कि खबर झूठी है..तो जबलपुर फोन आने लगे कि मंत्री बिश्नोई के घर जा कर उनसे माफी मांगी जाए और उनका खंडन अखबार में छापा जाए..माफी मांगने का तो सवाल ही नहीं उठता था, हां उनका वर्जन जरूर छापना पड़ा जबकि अगले ही दिन शिवराज सिंह ने बिश्नोई को मंत्रिमंडल से निकाल दिया..
बिहार और उत्तरप्रदेश में जाति का खेल ज्यादा चलता है…मुजफ्फरपुर हिंदुस्तान में रहते एक डी आई जी (जो अब राज्य के पुलिस प्रमुख हैं) के बारे में एक रिपोर्ट लिखी, जो मंच पर उनके सूरदास के अंदाज़ में अनेक बार भजन कीर्तन करने को लेकर थी.. वो संपादकीय पेज पर छपी.. उस पुलिस अफसर की जाति के ही हमारे एक रिपोर्टर ने खबर के छपते ही अफसर के निवास पर दौड़ लगाई और उनके चरणों में बैठ कर उन्हें बताया कि वो किसने लिखी..अफसर ने पांच पन्ने का हाथ से लिखा खत मुझे भिजवाया कि वो पुलिस की वर्दी में सूरदास क्यों बने रहते हैं..
लखनऊ नवभारत टाइम्स में तो एक खबर पर चपरासी से लेकर संपादक तक (सब एक ही जाति के) इकट्ठे हो कर लिखने वाले इस नाचीज़ पर पिल पड़े क्योंकि खबर एक राजा साहब के परिसर में चल रहे अवैध धंधों पर थी..आखिरकार उस राजा की जाति के दस बारह जनों ने जब तक खबर का खंडन दो दो जगह नहीं छपवा दिया, उन्होंने ( संपादक ने भी ) चैन की सांस नहीं ली..
पंजाब के आतंकवाद के दिनों में चंडीगढ़ जनसत्ता में रहते इंडियन एक्सप्रेस तक की कलई खुल गई कि किस तरह वो उस समय के हालात की खबरों के लिए सरकारी एजेंसियों पर निर्भर रहा..पंजाब केसरी या ट्रिब्यून की तो बात ही मत कीजिए..सारे अखबार मिलिटेंसी की घटनाओं में मरने वालों की भीड़ होड़ लगा कर छाप रहे थे..एक दिन शक होने पर अखबार के एक सज्जन को जिम्मेवारी सौंपी कि वो मरने वालों की संख्या की सच्चाई का पता तो लगाएं..तीन दिन की मेहनत के बाद पता लगा कि सारी न्यूज एजेंसियों में मरने वालों में वो सब भी शामिल हैं जो खुद अपनी मौत मर रहे थे या हादसों में मर रहे थे..और सारे अखबार वही सब आंख मूंद कर छापे जा रहे थे..उसी दिन से मरने वालों की संख्या 60-70 से 20-30 पर आ गई…
बोफर्स को लेकर ईरान – तुरान तक घोड़े दौड़ा रहे अरुण शौरी या प्रभाष जोशी ने पंजाब के आतंकवाद की सच्चाई जानने की क्या योजना बनाई!! क्या नेटवर्क तैयार किया था!!!
उस दौरान उन दोनों बैलों की जोड़ी का जोर राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद से हटाओ और विश्वनाथ प्रताप सिंह को लाओ अभियान पर था, जिसको आरएसएस रामनाथ गोयनका के जरिए हांक रहा था…
और अब तो कई सालों से चैनल और विभिन्न स्तर के अखबार, मीडिया नाम की आई पी एल टाइप पत्रकारिता की रामनौमी चादर ओढ़े सत्ता की तीसरी टांग भी (अगर होती ) चूमने को बेताब रहते हैं…
जारी…