-शीबा असलम फ़हमी।।
पुरानी दिल्ली: फिल्मिस्तान की ये त्रासदी डिज़ाइन की गयी है, बनाई गयी है. इस इलाक़े को ग़रीबों के बसने का केंद्र मान कर हर एजेंसी ने इसे अनाथ छोड़ दिया है. रवैय्या ये है कि ‘अगर आपलोग सबका लाइसेंस और काग़ज़ बनवा देंगे तो पुलिस की कमाई ख़त्म हो जाएगी’.
ये कहना था एक पुलिस कांस्टेबल का जब हमने यहाँ लाइसेंस, नियम और क़ायदे से व्यापार-दुकानदारी की मुहीम चलाई थी. बिना लाइसेंस, रजिस्ट्रेशन, से चल रहे कारोबार में हर उस एजेंसी की ऊपर की कमाई सुनिश्चिंत होती है जिनका काम नियम और क़ानून लागू करवाना है. ट्रैफिक व्यवस्था, फ़ायर क़ानून, अवैध निर्माण, अतिक्रमण, ज्वलनशील सामान के गोदाम और इनमे बसे हज़ारों मज़दूर! किसी भी दिन या रात यहाँ आ कर देखिये और अंदाज़ा लगाइये कि किसी भी हादसे के लिए ये इलाक़ा तैयार है की नहीं. भूकंप, आग, जल भराव, बीमारी, कुछ भी हो जाए तो हालात क़ाबू से बाहर होंगे. रास्ते इतने तंग हैं कि एम्बुलेंस और फायर ब्रिगेड तो क्या स्ट्रेचर तक नहीं पहुँच सकते. हर गोदाम और बेसमेंट में प्लास्टिक-रबर के भरे स्पेस में मज़दूर सो रहे हैं. बेसमेंट में चलनेवाले गेस्ट हाउस और होटल, लालच में हर क़ानून-क़ायदे को लात मार कर चलाये जा रहे हैं.
ख़ालिस रिहायशी इलाक़े को पूरी तरह कमर्शियल और गोदाम में तब्दील किया जा चूका है. हर छत ज्वलनशील माल से अटी पड़ी है.फिल्मिस्तान की आज की आग में मरनेवाले मज़दूर ज़्यादातर उप्र, बिहार के नौजवान हैं जो विस्थापित हो कर दो वक़्त की रोटी कमाने आये थे. उनके घरवालों को इत्तेला देनेवाला भी शायद कोई होगा. शहरीकरण और मेट्रो-केंद्रित विकास की त्रासदी है दिल्ली की ये घटना. लेकिन दो दिन में सब भूल जाएंगे.