–राजीव मित्तल॥
महमूद गजनवी के समय से गुजरात और राजस्थान में जौहर की परंपरा शुरू हुई…हालांकि तब तक भारत के ताज़ातरीन इतिहास की उम्र डेढ़ हज़ार साल हो चुकी थी…और इस्लाम के आने के पहले एक हज़ार साल में हिन्दू राजाओं के बीच सेंकड़ों बार तलवारे खनक चुकी थीं… उत्तर भारत में हर्षवर्धन व महमूद गजनवी के बीच के करीब पांच सौ साल पूरी तरह राजपूत राजाओं के नाम रहे.. और पूरे पांच सौ साल ये राजा.. मैं राणा तू काणा…के चक्कर में एक दूसरे की ईंट से ईंट बजाते रहे.
महमूद ग़ज़नवी जब हिंदुकुश में अनंगपाल को मात दे कर पंजाब होता हुआ राजस्थान में घुसा तो उसके खिलाफ मोर्चे खुले…लेकिन राजस्थान में उसे कोई बड़ा युद्ध नहीं लड़ना पड़ा…राजा खुद को और अपनी प्रजा को किले के अंदर कर फाटक बंद कर देता..कुछ दिन घेराबंदी चलती..कुछ झड़प होतीं..और एक समय ऐसा आता कि बाहर से कोई मदद न मिलने के कारण दुश्मन की घेराबंदी किले के अंदर मौत का साया बन जाती.
तब मजबूरन राजा को अपनी फौज के साथ किले से बाहर आ कर लड़ना पड़ता, जिसमें केवल मौत मिलती..किले के अंदर राजा की दो चार सौ रानियां, राजकुमारियां बचते..और बचते कुछ लाचार बुजुर्ग..और उनके बीच में होता कुल ब्राह्मण देवता, जो सब औरतों की चिंताएं तैयार करवाता, उन्हें जलवाता..तब उन चिताओं पर डेढ़ साल की बच्ची से लेकर 90 साल की बुढ़िया जौहर करते.
मुगलों के समय में जौहर करने के बजाय रानियां अपने नौकर चाकरों के साथ नेपाल की तराई की तरफ निकल लेतीं और वहीं उनके संबंध बनते, बच्चे कच्चे होते…राजपूती रानियों की वही औलादें आगे चल कर थारू जनजाति में तब्दील हुईं..जिनकी दुर्दशा पर संजीव ने उपन्यास भी लिखा ..जंगल यहां से शुरू होता है.