–संजय कुमार सिंह॥
मुझे पत्रकारों और पत्रकारिता में एक बात बहुत अच्छी लगती है। एक दूसरे की खिंचाई खूब करते हैं। अब स्थिति बदल रही है। बुरी है। पर बहुत बुरी नहीं है। अब पत्रकार साफ-साफ खेमे में हैं। पर कुछ लोग निष्पक्ष दिखने की कोशिश में भी हैं। इसीलिए कुछ लोग निन्दा करने का मौका देते हैं। ऐसे मुद्दे उठाते हैं जिसपर खिंचाई हो सके और इस बात की जरा भी परवाह नहीं करते कि शीशे के घर में रहकर दूसरों पर पत्थर नहीं फेंका जाता। अजय सेतिया इसमें नंबर वन है। पंगे लेते रहते हैं। वो सकता है इसके पीछे उनका कोई उद्देश्य हो, स्वार्थ हो। पर हमले झेलते भी हैं। निजी हमले न करने की दलील भी देते हैं। गुस्साते भी हैं पर इतना नहीं कि ब्लॉक कर दें या गालियों पर उतर आएं। अब आज उन्होंने मेरे कमेंट के जवाब में लिखा कि उनके पास मुझसे ज्यादा अनुभव है। मुझे लिखना था कि आपकी उम्र भी ज्यादा है पर मैंने गुस्सा दिलाना ठीक नहीं समझा।
उनकी पोस्ट पर लोगों ने इतने मजे लिए पर वो हैं कि मुकाबले में डटे हुए हैं। मैंने भी खूब कमेंट किए पर वो हैं कि गुस्सा ही नहीं रहे हैं। अब मुझसे रहा नहीं जा रहा है और हिम्मत भी बढ़ गई है तो आइए जरा उनकी पोस्ट की पोस्टमार्टम करते हैं। कल उन्होंने एक पोस्ट लिखी थी, “पिछले दिनों पीआईबी का एक मान्यता प्राप्त पत्रकार सूचना प्रसारण मंत्री को मिला और अपना विजिटिंग कार्ड देते हुए कहा कि वह इवेंट मैनेजमेंट का काम करता है, कभी मंत्रालय के काम के लिए उन्हें भी मौका दिया जाए। वह पीआईबी कार्ड के कारण मंत्री तक पहुंच सका था। मित्रों उसे पत्रकार कहेंगे या वह पूर्व पत्रकार था। क्या उसे पीआईबी की मान्यता मिलनी चाहिए। उसकी इस हरकत से रिटायर्ड पत्रकारों को मिलने वाली एलएंडडी मान्यता खतरे में पड़ गई है। क्योंकि उस पूर्व पत्रकार ने मान्यता का दुरुपयोग किया। हालांकि केंद्र सरकार का ऐसा करना गलत होगा और अगर सरकार ऐसा करती है तो उस का सड़कों पर आ कर विरोध करना चाहिए।”
इसपर मैंने कल नहीं लिखा, अब लिख रहा हूं। अगर किसी के पास पीआईबी की मान्यता है आप तब भी उसे पत्रकार नहीं मानेंगे? मेरे पास पीआईबी की मान्यता नहीं है तो मैं पत्रकार हूं ही नहीं। सुविधाएं तो नहीं ही मिलती हैं। अजय सेतिया दिलाने की कोशिश करेंगे या दिला देंगे ऐसी कोई उम्मीद भी नहीं है। मतलब आप क्या चाहते हैं? आप ही तय करेंगे कि कौन पत्रकार है और कौन नहीं। पीआईबी कार्ड के दम पर किसी और से मिलना तो गलत हो सकता है। मंत्री से मिलने और साफ-साफ काम बताने का मतलब है – मंत्री ऐसे ही काम देता है। या मंत्री को कार्रवाई करने दीजिए। ना खाऊंगा ना खाने दूंगा नीति है। कार्रवाई करने के लिए कहिए। दबाव बनाइए। लेकिन आप वो नहीं करेंगे। आपको चिन्ता है कि “इस हरकत से रिटायर्ड पत्रकारों को मिलने वाली एलएंडडी मान्यता खतरे में पड़ गई है।” यही नहीं, अजय सेतिया आगे लिखते हैं, “…. हालांकि केंद्र सरकार का ऐसा करना गलत होगा और अगर सरकार ऐसा करती है तो उस का सड़कों पर आ कर विरोध करना चाहिए।” क्यों? अगर पत्रकार सुविधाओं का दुरुपयोग करते हैं तो बंद क्यों नहीं होनी चाहिए? आपको भी मिलती है, इसीलिए ना? या दुरुपयोग का कथित मामला दुरुपयोग है ही नहीं, या कभी-कभार होने वाले ऐसे मामलों में एक है और आप इस समय उठा रहे हैं क्योंकि आपको साबित करना है कि विनोद वर्मा को पत्रकार मानकर उनके पक्ष में और भाजपा सरकार के खिलाफ न लिखा जाए।
अजय सेतिया ने अपनी उसी पोस्ट में आगे लिखा है, “अब यही बात क्या विनोद वर्मा पर लागू नहीं होती। जब वह एक राजनीतिक दल के लिए काम कर रहा है, तो उसे पत्रकार की पीआईबी मान्यता मिलनी चाहिए क्या। उसे पूर्व पत्रकार क्यों नहीं कहा जाना चाहिए। वैसे भी पीआईबी नियमों के अनुसार वह तभी मान्यता का अधिकारी है, जब तक वह सिर्फ पत्रकार है। (मैं जब एक आयोग का अध्यक्ष था, तो मैंने तीन साल पीआईबी की मान्यता नहीं ली थी और सरकारी आवास भी सरेंडर कर दिया था।)
इसपर मेरा कहना है, दूसरे के मामले में तो वह तभी तक पीआईबी मान्यता का अधिकारी है जब तक वह सिर्फ पत्रकार है। अपने मामले में जो लिखा है आपने कोष्ठक में पढ़ा ही। इसपर मैंने लिखा, ” …. आपने तीन साल पत्रकारों वाली सुविधा नहीं ली। फिर मान्यताप्राप्त पत्रकार हो गए। फिर कोई मिलेगी तो ये वाली सुविधा छोड़ देंगे, वो वाली ले लेंगे। यही तो पत्रकारिता है।” इसपर उन्होंने लिखा, “…. बदलते रहने में कोई हर्ज नहीं है।” यानी यहां भी वही, मैं, मैं, मैं और मैं ही सही।
इसके बाद अजय सेतिया आगे लिखते हैं, “पता चला है कि पूर्व पत्रकार ओम थानवी ने शनिवार को प्रेस क्लब में कहा कि विनोद वर्मा क्योंकि पीआईबी का मान्यता प्राप्त पत्रकार है, इस लिए उस की गिरफ्तारी गलत है । वह तो संपादक होते हुए भी खुद को रिपोर्टर बता कर संसद से प्रेस गैलरी का पास लेते थे, जो पूरी तरह गलत था, जब कि वह कभी प्रेस गैलरी में नहीं गए। सो उन से किसी को पत्रकारिता के सिद्धान्त सीखने की जरूरत नहीं है। जनसत्ता का सिद्धान्त था कि कोई सरकारी कृपा नहीं लेगा, लेकिन वह सरकारी कृपा से विदेश यात्राओं पर जाते रहे। उन के पुराने साथी जानते हैं कि उन्होंने कितने संपादकीय लिखे और सरकारी विदेश यात्राओं के दौरान कितनी रिपोर्टें भेजी है।
अजय सेतिया ओम थानवी को पूर्व पत्रकार कह रहे हैं औऱ यह भी कि संपादक खुद को रिपोर्टर बताकर संसद की प्रेस गैलरी का पास लेते थे जो गलत है। पर सवाल है कि गलत है तो मिलता क्यों है और जब मिलता है तो गलत है – ये कौन तय करेगा? संपादक ये तय नहीं कर सकता है कि संसद की रिपोर्टिंग आज वह खुद करेगा और इसके बाद वह यह तय नहीं करेगा कि आज संसद में जो हुआ उसपर लिखना है कि नहीं। या वह किसी अजय सेतिया से पूछकर तय करेगा या संसद की प्रेस गैलरी का पास बनाने वाले से पूछ कर। संसद की प्रेस गैलरी का पास बनवाकर मैं भी गया हूं और कुछ नहीं लिखा है। संसद जाने का मतलब लिखना जरूरी है यहां कहां का नियम है, कब बना? जहां तक जनसत्ता के सिद्धांत की बात है, वह शायद प्रभाष जी का रहा होगा और जनसत्ता का भी हो तो क्या वही आदर्श है? प्रभाष जोशी की तरह ओम थानवी के आदर्श नहीं हो सकते? गजब।