-राजदीप सरदेसाई||
जब राजीव गांधी ने 1980 में विरोधियों को यह चेतावनी दी थी- ‘हम अपने विरोधियों को उनकी नानी याद दिला देंगे,’ तो इसकी जितनी हंसी उड़ी, उतना ही क्रोध भी उपजा। गलत मौके पर चुने गए इस जुमले को उनकी कमजोर हिंदी के रूप में देखा गया। अब जब राहुल गांधी ने ‘खून की दलाली’ के बेतुके जुमले से मोदी सरकार की आलोचना की है तो हंसी की बजाय रोष ही ज्यादा पैदा हुआ। क्योंकि यहां ‘दलाली’ का संदर्भ संवेदनशील अभियान से है, जिसमें हमारे जवानों की जिंदगियां दांव पर लगी थीं। अपने पिता (और इस स्तंभकार) की तरह अंग्रेजी में सोचकर हिंदी में बोलने के अपने नुकसान हैं। किंतु यदि राहुल ने शब्दों को सावधानी से चुनकर कहा होता कि केंद्र ‘सर्जिकल स्ट्राइक का राजनीतिकरण’ कर रहा है, तो क्या वे गलत होते?
जरा साफ नज़र आने वाले सबूतों पर निगाह डालिए। जिस दिन ‘सूत्र’ आधारित खबर में दावा किया गया कि प्रधानमंत्री ने कैबिनेट सहयोगियों को संयम बरतने को कहा है, वाराणसी में ऐसे पोस्टर उग आए जिनमें ‘बुराई पर अच्छाई’ की जीत को दर्शाने के लिए मोदी को राम, नवाज़ शरीफ को रावण और अरविंद केजरीवाल को मेघनाद के रूप में दर्शाया गया था। भाजपा ने दावा किया कि पोस्टर स्थानीय शिवसेना ने लगाए और पार्टी का इससे कोई लेना-देना नहीं है। जब ‘उड़ी का प्रतिशोध’ लेने वालों की जय जयकार करते हुए सैनिकों के चित्रों के साथ मोदी और गृहमंत्री राजनाथ सिंह के कुछ और पोस्टर लखनऊ में प्रधानमंत्री की विजयादशमी रैली के पहले उभरे, तो पार्टी ने स्थानीय कार्यकर्ताओं को जिम्मेदार ठहराया। जब इनकार कोई विकल्प नहीं रहा तो भाजपा प्रवक्ता ने कहा कि इस विजयनाद से ‘जनता का मूड’ झलकता है और यह देशभर में सर्जिकल स्ट्राइक के प्रति स्वस्फूर्त समर्थन का प्रमाण है। लोक-संस्कृति से निकले राम आख्यान में आतंक जैसे अभिशाप पर समकालीन विमर्श व पाक स्थित आतंक को खत्म करने के मोदी सरकार के प्रयास क्यों नहीं झलकने चाहिए?
सर्जिकल स्ट्राइक के बाद की भाजपाई बयानबाजी की जड़ भुजाएं भड़काने वाली राष्ट्रवादी राजनीति में मौजूद है और उसे यकीन है कि नौकरियां पैदा करने की चुनौती बनी हुई है तो भावनात्मक ‘राष्ट्रवादी’ ढोल पीटना अब भी पार्टी का मुख्य यूएसपी है। क्योंकि नियंत्रण-रेखा के पार हमले के बाद उन्माद भले न हो पर राहत का आम अहसास जरूर है, खासतौर पर शहरी मध्यवर्ग में कि पाकिस्तान को सबक सिखा दिया गया है। सर्जिकल स्ट्राइक ने कड़े, निर्णायक नेता के रूप में मोदी की स्वघोषित ‘56 इंच छाती’ की छवि को पुख्ता किया है। मोदी ही क्यों कोई भी राजनीतिक दल महत्वपूर्ण राज्यों में चुनाव के पहले वोट खींचने वाला मुद्दा नज़र आने पर क्या उसे भुनाता नहीं? भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने तो स्पष्ट कहा कि सर्जिकल स्ट्राइक यूपी व उससे आगे भी चुनावी मुद्दा होगा। ऐसे में सरकार के छाती ठोंकने पर विपक्ष का खेद जताना थोड़ा अनुपयुक्त लगता है। अत्यधिक प्रतिस्पर्द्धी राजनीतिक वातावरण में किसी सत्तारूढ़ गठबंधन से ‘उपलब्धियों’ का श्रेय न लेने की अपेक्षा करना पाखंड ही होगा। क्या कांग्रेस ने इंदिरा गांधी के नेतृत्व में 1971 की युद्ध-विजय को सालभर बाद हुए विधानसभा चुनाव में नहीं भुनाया था? यह सही है कि 2016 किसी दृष्टिकोण से 1971 नहीं है- एक बड़ी बायपास सर्जरी की तुलना कभी भी सर्जिकल स्ट्राइक से नहीं की जा सकती, लेकिन साहस के साथ लड़ाई को दुश्मन के खेमे में ले जाकर पाकिस्तान के साथ रिश्तों की नई शर्तें तय करके मोदी सरकार कम से कम इस वक्त तो राजनीतिक जीत का दावा कर ही सकती है। यदि पोस्टर ‘खून की दलाली’ के उदाहरण दिखते हैं तो 1984 में सिख विरोधी खूनी दंगों के बाद हुए आम चुनाव में कांग्रेस के भद्दे प्रचार अभियान को न भूलें।
मोदी सरकार के चिअरलीडर जिस तरीके से हमले की ‘मार्केटिंग’ कर रहे हैं, वह विचलित करने वाला है, जबकि सीमा और कश्मीर घाटी में तनाव बढ़ता जा रहा है। ‘राष्ट्रवादी’ उन्माद भड़काने के प्रयास में, असुविधाजनक प्रश्न पूछने वाले किसी भी व्यक्ति को ‘राष्ट्र-विरोधी’ घोषित करने का कोई मौका नहीं छोड़ा जा रहा है। मीडिया के चौबीसों घंटे चलने वाले शोर के बीच असहमति के स्वर को पाक ‘आईएसआई’ एजेंट घोषित कर डुबो देने या ‘पहले देश’ की स्टोरीलाइन के वेश में समाचार संगठनों को स्व-सेन्सरशिप के लिए एक तरह से मजबूर करने की सोची-समझी सरकारी रणनीति दिखाई देती है। एक बार यदि सरकार छिपे अभियान पर बढ़-चढ़कर बातें करने लगे तो क्या विपक्ष को इस मांग का हक नहीं है कि सरकार और अधिक विवरण सार्वजनिक करे? यदि ऐसे खुलासे में जायज सुरक्षा चिंताएं हैं तो क्या सारी पार्टियों के शीर्ष नेताओं को चलाए गए अभियान की जानकारी नहीं दी जानी चाहिए? वास्तव में हमारी राजनीति बिगड़ गई है अौर राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे संवेदनशील मुद्दे पर भी हमारे लोकतंत्र ने आम-सहमति निर्मित करना छोड़ दिया है। अापस में बिल्कुल भरोसा न होने का मतलब है सरकार और विपक्ष एक-दूसरे को ‘शत्रु’ के रूप में देखते हैं। इसके नतीजे में निकले दबाव-खिंचाव से सेना भी बची नहीं है। जब पूर्ववर्ती सरकार से कर्कश संघर्ष में उलझा सेनाध्यक्ष नई सरकार में मंत्री बन गया हो तो यह मानने का कारण है कि राजनीति उन थोड़े से संस्थानों में से एक में प्रवेश कर गई है, जो इसके घातक प्रभाव को रोकते दिखाई देते थे।