-शंभूनाथ शुक्ल||
(पत्रकारिता के संस्मरण पार्ट-11}
शाहबानों अधेड़ उम्र की एक मुस्लिम महिला थी. जिसे 1975 में उसके पति ने उसे घर से निकाल दिया. अब पांच बच्चों को वह कैसे पाले इसलिए उसने अपने पति मोहम्मद अहमद खान के विरुद्ध अप्रैल 1978 में 500 रुपये महीने गुजारा भत्ता देने का मुकदमा दायर किया. इसके सात महीने बाद नवंबर 1978 में उसके पति ने उसे तलाक दे दिया और उलटे सुप्रीम कोर्ट में उसने मुकदमा दाखिल किया और कहा कि वह शाहबानों को गुजारा भत्ता देने के लिए बाध्य नहीं है क्योंकि इस्लामिक कानून के मुताबिक उन्होंने दूसरी शादी कर ली है इसलिए शाहबानों अब उनकी जिम्मेदारी नहीं है. शाहबानों ने कोर्ट से कहा कि उसके पास आय के कोई स्रोत नहीं हैं इसलिए उसके पति की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह उसके व बच्चों के भरण-पोषण के लिए गुजारा भत्ता दे. सात साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 125 के तहत फैसला किया कि मोहम्मद अहमद खान को गुजारा भत्ता देना चाहिए.
बस, इसके बाद तो बवाल मच गया. मुसलमान नेताओं का कहना था कि यह मुस्लिम पर्सनल लॉ के मामले में दखल है. ओबेदुल्ला खान आजमी और सैयद काजी ने पूरे देश में हंगामा बरपा कर दिया कि शाहबानों को गुजारा भत्ता नहीं मिलना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने चूंकि यह फैसला सीआरपीसी के तहत दिया था इसलिए इसमें मुस्लिम पर्सनल ला बीच में नहीं था पर इन दोनों मुस्लिम नेताओं ने इसे लेकर तनाव का माहौल बना दिया. उस समय लोकसभा में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत था अत: उसने एक नया कानून पास किया- द मुस्लिम वूमेन (प्रोटेक्शन एंड राइट आन डायवोर्स) एक्ट 1986 और सुप्रीम कोर्ट का फैसला रद्द कर दिया.
पर शाहबानों ने मुस्लिम और हिंदू कट्टरपंथियों के बीच कटुता बढ़ा दी. जिस जनसंघ ने 1950 में हिंदू कानूनों में संशोधन का घोर विरोध किया था अब उसके नए अवतार भाजपा ने शाहबानों के मामले में समान नागरिक कानून के तहत सुनवाई की मांग की और समान नागरिक आचार संहिता की मांग उसने फिर से उठा दी. शाहबानों के मामले में भाजपा का जुड़ाव दरअसल इस बहाने हिंदू कट्टरवाद को बढ़ावा देने के लिए था. पूरे देश में दोनों कट्टरपंथी तनाव फैला रहे थे. लोकसभा में कांग्रेस बहुत बेहतर स्थिति में थी पर प्रधानमंत्री राजीव गांधी अपरिपक्व थे. उनकी समझ में नहीं आया क्या करना चाहिए और वे अपने जिन कश्मीरी पंडित रिश्तेदारों पर भरोसा करते थे वे ज्यादातर मुस्लिम विरोधी थे. उस समय कहा गया था कि यह अरुण नेहरू की राय थी कि भाजपा के इस आंदोलन को दबाने के लिए आरएसएस की वर्षों पुरानी मांग कि राम जन्म भूमि का ताला खोल दिया जाए, को पूरा कर देना चाहिए. इसी साल 1986 में इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला आया कि अयोध्या में रामजन्म भूमि का ताला खोला जाता है.
भाजपा इसी के साथ शाहबानों को भूल गई. और अयोध्या में एक भव्य राममंदिर बनाने की तैयारियों में जुट गई. फिजूल की बहसों में पूरा देश दो समुदायों में बट गया. एक तरफ राम जन्म भूमि पर मंदिर रामलला का भव्य मंदिर बनाने के लिए आतुर आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद थे और दूसरी तरफ बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी. विहिप ने मुसलमानों को बाबर वंशी घोषित कर दिया और वे पसमांडा मुसलमान भी इसकी लपेट में आ गए जिनके पास नाम और पूजा स्थल के सिवाय सारे सामाजिक आचार विचार हिंदुओं जैसे ही थे. वे अपने धर्म में उपेक्षित थे पर अब सब बाबरी मस्जिद के लिए एक हो रहे थे इसी तरह हिंदुओं में अवर्ण हिंदू राम जन्म भूमि पर मंदिर बनाने को आतुर.
यह वह दौर था जब वर्नाकुलर अखबारों को मुफस्सिल इलाकों में भी बाज़ार मिल रहा था इसलिए ये अखबार इस विवाद को और हवा दे रहे थे.
(जारी)
और इसी से भारतीय राजनीति के सांप्रदायिक दौर की शुरुआत हुई.भा जा पा को लगा कि कांग्रेस इस तरह मुस्लिम लोगों को विशेष लाभ दे कर अपना वोट बैंक और पक्का कर रही है, आडवाणी की यात्रा उसका प्रति उत्तर थी.न यह सब कुछ होता न देश का भाई चारा बिगड़ता.दूसरों को सांप्रदायिक कहने वाली कांग्रेस भी कम सांप्रदायिक नहीं.असल में तो उसका धर्म निरपेक्षता का मुखोटा बेनकाब हो चूका था जिसे वह बार बार ढकने के लिए भा जा पा को सांप्रदायिक कह कर मुसलमानो में अपनी जड़े पक्की करती रही.आज उसी का अंजाम देश देख रहा है.
और इसी से भारतीय राजनीति के सांप्रदायिक दौर की शुरुआत हुई.भा जा पा को लगा कि कांग्रेस इस तरह मुस्लिम लोगों को विशेष लाभ दे कर अपना वोट बैंक और पक्का कर रही है, आडवाणी की यात्रा उसका प्रति उत्तर थी.न यह सब कुछ होता न देश का भाई चारा बिगड़ता.दूसरों को सांप्रदायिक कहने वाली कांग्रेस भी कम सांप्रदायिक नहीं.असल में तो उसका धर्म निरपेक्षता का मुखोटा बेनकाब हो चूका था जिसे वह बार बार ढकने के लिए भा जा पा को सांप्रदायिक कह कर मुसलमानो में अपनी जड़े पक्की करती रही.आज उसी का अंजाम देश देख रहा है.