-शिवनाथ झा||
“मंगनी के चन्दन, लगाइब रघुनन्दन”, आज की तारीख में भारत में कला और संस्कृति को बचाने में लगी संस्थाओं, चाहे वे सरकारी क्षेत्र की हों या गैर-सरकारी क्षेत्र की, पर बहुत ही सटीक बैठ रहा है. कला और संस्कृति के “बचाव” के नाम पर ये संस्थाएं किसी भी प्रकार से मुग़ल या अंग्रेजों के समय बने ऐतिहासिक भवनों को “हड़पना” चाहती हैं और सरकारी मुलाजिम और मुखिया भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इनके साथ हैं.
अजमेर के नया बाज़ार स्थित अकबर का किला इसका एक ज्वलंत उदाहरण है. प्राप्त जानकारी के अनुसार इस किले के अधिकांश भागों, जो अब गलियों और बाजारों में तब्दील हो गये है, पर निजी लोगों का कब्ज़ा है. सम्भव है उस पर उनका पुश्तैनी दखल हो, परन्तु जिस तरह से अन्य दीवारों को तोड़ कर शहर की मुख्य सड़कों से जोड़ा जा रहा है, वह भले ही आज पर्यटकों को आकषित करे, परन्तु आने वाले दिनों में इसका “नेस्तनाबूद” होना तय है.
इतना ही नहीं पर्यटकों का ध्यान आकर्षित करने के लिए इसके नामों के साथ भी “खिलवाड़” करना शुरू कर दिया गया है.
इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज (इंटेक) अजमेर चेप्टर के संयोजक महेंद्र विक्रम सिंह ने अकबर के किले के अलग-अलग लिखे नामों पर ध्यान आकर्षित करते हुए सही नाम लिखे जाने की मांग की है.
सिंह ने कहा कि आखिर यह है तो “अकबर का किला” ही, फिर हम अकबर के नाम को विभिन्न नामों से क्यों लिख रहे हैं. सही नाम “अकबर का किला और राजकीय संग्रहालय” लिखा जाना चाहिए.
अकबर का किला की स्थिति भारत में फैले अन्य ऐतिहासिक भवनों कि स्थिति से बहुत बेहतर नहीं है, चाहे दिल्ली हो या मुम्बई. स्थानीय लोगों का क्षेत्र में कब्ज़ा, या फिर अपनी सुविधा अनुसार उन्हें बरगलाना, यह नज़ारा सभी जगह आम है.