-क़मर वहीद नक़वी||
आप चाहे आप हों, अन्ना हों, वीपी हों, आडवाणी हों, मोदी हों या चाहे भी जो कुछ हों, सबके सब एक ही अनार के लिए बीमार क्यों हुए जाते हैं? नाम बड़े किसिम-किसिम के, लेकिन दर्शन वही खोटे! ऐसा लगता है कि ये जनता ही कोई ऐसी सम्मोहनी सुन्दरी है कि जो एक बार इसके फेर में पड़ता है, बस लट्टू हो जाता है! अब अपने केजरीवाल साहब को ही देखिए. लोकपाल लीला की चकल्लस चखते ही जनता की मोहिनी माया में फँस गये. राजनीति में उतरे. बोले, राजनीति की सफ़ाई करनी है. झाड़ू चाहिए. लगा कि भई, वाक़ई बड़ा दमदार बन्दा है. चुनाव निशान चुना तो झाड़ू. सचमुच यह राजनीति की सफ़ाई करके ही मानेगा. लेकिन क्या पता था कि वह भी उसी गटर में गिर जायेंगे, जहाँ के कीचड़ में लोटने-पोटने को हर कोई ललक रहा है! सो केजरीवाल साहब बरेली जा कर आला हज़रत मौलाना तौक़ीर रज़ा ख़ान साहब के दरवाज़े सजदा कर आये! मौलाना साहब सुन्नी मुसलमानों के बरेलवी पंथ के सबसे बड़े नेता हैं और कांग्रेस, बीएसपी से होते हुए फ़िलहाल समाजवादी पार्टी के साथ हैं. इन पर मुसलमानों को दंगों के लिए उकसाने के संगीन आरोप लग चुके हैं. तसलीमा नसरीन और जार्ज बुश का सिर क़लम कर दिये जाने की पैरवी मौलाना साहब बड़े ज़ोर-शोर से कर चुके हैं. लेकिन केजरीवाल जी को मुसलिम वोटों की चिन्ता तो करनी ही पड़ेगी न!
ये मुए वोटों की भंग ऐसी चढ़ी कि केजरीवाल साहब की याद्दाश्त पर ढक्कन लग गया. कुछ याद न रहा कि तौक़ीर रज़ा साहब क्या-क्या कर चुके हैं. न ही उनके बड़े-बड़े बुद्धिजीवी, रिसर्चजीवी सिपहसालारों में से किसी की दूरबीन कुछ देख पायी. सच ही कहा है किसी ने प्रेम अन्धा होता है! हमने आज अपनी आँखों से देख लिया कि वोटों का प्रेम बड़ी-बड़ी दूरबीन दृष्टियों को भी अन्धा कर देता है. बड़े-बड़े भलेमानुस, बड़े-बड़े सिद्धाँतवादी सिद्ध जन भी वोटों की रति से ललच कर बरसों से ओढ़े ब्रह्मचर्य की कथरी को बिन सकुचाये-लजाये उतार कर डुबकी लगा लेते हैं!
उधर, बेचारे नमो भाई को मन मार के मुसलमानों से प्रेम जताना पड़ जा रहा है. अपनी सभाओं में टोपियों और बुरक़ों की नुमाईश करनी पड़ रही है. अब यह अलग बात है कि कभी-कभी ज़बान फिसल जाती है और मुँह से ‘पिल्ला’ निकल पड़ता है! मोदी साहब का यह नया-नया इश्क़ देख कर शिव सेना दुःख से दुबली हुई जा रही है!
कुछ बरस पहले उन्हीं के ‘भीष्म पितामह’ आडवाणी जी तो अपनी ‘हार्डलाइनर’ की छवि धोने के चक्कर में जिन्ना को सेक्यूलर बताने का ऐसा पाप कर बैठे कि पूरे राजनीतिक जीवन की सारी कमाई ही गँवा बैठे. गये थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास!
थोड़ा और पीछे 1988 में चलते हैं. भ्रष्टाचार का ही मुद्दा लेकर वी. पी. सिंह केन्द्र सरकार से अलग हुए थे. जनमोर्चा बना था. कहा गया कि जनमोर्चा दस साल तक राजनीति में नहीं उतरेगा. बहरहाल, कुछ ही दिन बीते होंगे कि वी. पी. सिंह ने तय किया कि वह इलाहाबाद से उपचुनाव लड़ेंगे. एक तरफ़ भाजपा समेत पूरा संघ परिवार वी. पी. सिंह के साथ लगा था, दूसरी तरफ़ सैयद शहाबुद्दीन की लिखित अपील मुसलमानों के बीच बँटवायी जा रही थी. हो गया न पूरा सेक्यूलर प्रचार! और जब जनमोर्चा के एक और संस्थापक सदस्य आरिफ़ मुहम्मद ख़ाँ वहाँ पहुँचे, तो वी. पी. सिंह के चुनाव मैनेजरों ने उन्हें प्रचार ही नहीं करने दिया. डर था कि शाहबानो मामले में आरिफ़ के स्टैंड के चलते मुसलमान कहीं बिदक न जायें!

चलिए, ये सब तो वोट के बौराये हुए लोग हैं, लेकिन अन्ना जी को क्या हुआ था? अभी कुछ दिन पहले तक जनरल वी. के. सिंह को चिपकाये-चिपकाये घूम रहे थे. देश की तसवीर बदलते-बदलते सिंह साहब ने रातोंरात पाला बदल लिया. अब वह नरेन्द्र मोदी से नैन-मटक्का कर रहे हैं और अन्ना बेचारे हाथ मल रहे हैं! ऐसे ही एक ज़माने में अन्ना जी बाबा रामदेव पर लहालोट हुआ करते थे क्योंकि रामदेव उनके लिए भीड़ जुटवा सकते थे. रामदेव कितने विवादों में घिरे रहे थे, यह किससे छिपा है. रामदेव भी अब मोदी के धुरन्धर ध्वजारोही हैं!
हमने यहाँ उन पार्टियों का नाम जानबूझकर नहीं लिया जिन पर बीजेपी ‘छद्म धर्मनिरपेक्षता’ का लेबल लगाती है. यहाँ बात सिर्फ़ उनकी है, जिन्होंने मौसम देख कर कोट बदल लिए! काहे का उसूल, काहे की विचारधारा, सब कहने की बातें हैं. इनका एक ही उसूल है, वोट मिले, भीड़ मिले, बाक़ी सब जाय भाड़ में! अपनी-अपनी रंग-बिरंगी टोपियों के नीचे सब एक ही रंग के अवसरवादी हैं. अन्ना से मोदी तक, हम सब एक हैं!
(लोकमत समाचार)
achchha hai par aur bhi achchha hota ki aap unake baare me bhi likhte jo apane aap ko dharm nirpeksh kahte hai jab ki wastaw me wah koi nahi ho sakta
लेख अच्छा हे लेकिन आप भी राजनीति में डूबे हुए निकले और धर्मनिरपेक्षता से दूर