भारत भाजपा और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद-5
-दीप पाठक||
भारत का अधिकांश जनमानस समझता है कि कांग्रेस ही पुरानी और राजनीतिक पार्टी है और वही देश की राजनीतिक पहचान है. पर सच तो यह है कि इस देश की नफरत और द्वेष की राजनीति की जड़ें भी बहुत गहरी हैं, जिसको हिंदूवादी फिरकों ने खूब समझा और आजादी से पहले से ही इसकी शुरुआत कर दी थी.
कांग्रेस तो भारतीय समाज की समझ के बजाय आंग्ल समझ से प्रभावित थी और बंटवारे के बाद बचे टुकड़े पर मिलीजुली राय समझ के बूते वो शासन चलाती आयी. ये कुछ भारतीय समाज की सादगी की भी ताकत थी.
जब गुरुदत्त ने नेहरु के नेतृत्व की विफलता को अपनी फिल्म प्यासा में “ये महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनियाँ, ये दुनियां अगर मिल भी जाये तो क्या है” गाने में भीतरी भारत के उस समय की खोखलेपन और बेकारी की विभिषिका को दिखाया तो गुरुदत्त के चाहते न चाहते भी ये फिल्म भारतीय सिनेमा का मील का पत्थर बन गयी. नेहरु के समाजवाद के मुंह पे ये फिल्म मुझे तो तमाचा लगी थी, बाकी किसने उसमें क्या देखा मुझे नहीं पता.
सन पिचासी से बयानबे तक के सात साल तक के वक्त में संघ की ताकत में अचानक इजाफा हुआ. टीवी पर रामायण और महाभारत जैसे धारावाहिकों ने, रामलीला देखकर संतोष करती जनता ने, सिने तकनीक से खुट्टल तीरों को पैट्रियट और स्कड मिसाइलों से उन्नत और मेगार्स्माट देखा तो इस वर्चुअल मिथक ने रामायण और महाभारत के कथाभासी मिथक को मिलाकर कथा पोथी चुटिया बोदी वाले हिंदू समाज में कुछ नहीं, बहुत कुछ बलबला आया. भाजपा की भड़काउ राजनीति ने इसमें क्षत्रिय राजाओं की वीरता भरी कथाऐं और जोड़ दी (हांलांकि क्षत्रिय राजा भी अय्याश और बकैत ठस बर्बर थे). अब इस उभार और बलबले के लिए एक आंदोलन चाहिए था और बाबरी मस्जिद सामने रखी थी. जबर मदांध के हाथ में जलता लुकाठा हो सामने गरीब का छप्पर हो तो लंकाकांड होना तय होता है.
सभ्य समाज के वानरीकरण का काम भाजपा पूरा कर चुकी थी. गांधी के तीन बंदरों की कहानी से इतर ये कटखनी रैबीज वायरस भरे घुड़कीबाज वानरों की जमात थी. ये उजाड़ना जानती थी, तामीर के लिए इसे ध्वंस चाहिए था, मलबे के ढेरों पर इनके विजय पताकाओं की पुरानी परंपराऐं जीवित हो गयीं थीं.
अब जब भगवा परवान चढ़ा तो अब इस्लाम को भी संकट में आना ही था, मुहम्मद, हसन, हुसैन, हजरत से आगे बढ़कर मंगोल, अहमद शाह अब्दाल्ली, तैमूर, नादिरशाह, गजनी, औरंगजेब, यूं समझिए पूरी मुगलिया सल्तनत का इतिहास याद आना ही था” कि 56 मुल्कों पर राज करने वाली ये कौम आज इस कुगत को क्यूं पहुंच गयी?”
भारतीय समाज के फासीवादी ध्रुवीकरण के युग की औपचारिक शुरुआत हो चुकी थी. इसके उभार के बाद 22 दलों की सरकार हमने देखी. कांग्रेस के कट टू साइज की शुरुआत हो गयी. सबसे अधिक हास्यास्पद नारा भी तो कांग्रेस ने इसी दौर में दिया- “अपना जन जन से नाता है, सरकार चलाना आता है.” 400से ज्यादा सीटें जीतने, 45 साल राज करने के बाद कांग्रेस को बताना पड़ रहा था कि ‘राज चलाना आता है’.
(जारी)
pathak ji nafrat ka beej boya kahan jata hai kabhi socha hai aapane
कांग्रेस का जन्म/ उद्देश्य/ दिशा / संस्स्थापक / समय की प्रेर्स्ति\ भूमि पर बात की जाए तो आप की हर बात का जबाब इएसि में से मिल जाता है जो कांग्रेस के इएस एतिहास को जानते होंगे आज्ज़दी ७ लाख लोंगो की कुर्वानी का नतीजा है ना की गांघी की उदारवादी नीतियों का परिणाम गांधी अंग्ग्रेजो की कुटिल निति का मुखोटा थे अंग्रेज व्यापारी थे उनेह केवल पोइसा लूट ने के आलावा कुछ नहीं करना था वो कर भी वही रहेथे नेहरू की सत्ता लोलुपता पावर की चाहत ने नैतिक जीवन की गिरावट में साड़ी मरियादाये सीमाए छोड़ दी थी रास्ते देश के निरमानकी कलिप्पन भी वेशी सोच से पूरीतर अभी प्रेरित थी इएसिलिये वोट की खातिर चाहे जो करना पड़े किया गया देश भाता गया आचरण मिट गए पित्तार्ता सम्प्पत हो गयी रास्ट्री भटगाया इएसिलिये आज भी हर राज नैतिक दल की ये परम्परा सी बन चुकी है की सत्ता के लिए कुछ भी किया जाए ये दुर्भाग्य है हमारा
हो गयी