भारत, भाजपा और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद-4
-दीप पाठक||
एक समय फिल्मों में शुद्ध हिंदी के गानों को लिखने की कोशिश बड़े जतन से की गयी, कुछ बन पाए और कुछ हास्यास्पद हो गये. “यक चतुर नार..” हो या “प्रिय प्राणेश्वरी..”. भाषायी बौद्धिक उलटबांसियों का यही हश्र होता है. लोक से चीजें सीखने के बजाए नितांत व्यक्तिगत प्रयोगों का नतीजा आप समझ रहे हैं?
आजादी के बाद शिशु मंदिरों और हिंदी संस्थानों ने मूल परिष्कृत हिंदी बनाने और जुबान पर चढ़ाने की खूब कोशिश की पर वे भारतेंदु, दिनकर, महादेवी, सुमित्रानंदन, निराला और मुक्तिबोध को कितना समझ पाऐ? आप उनकी संघ-भाजपा की हिंदी देखें तो खुद ही उनकी अधकचरी भाषाई दरिद्रता पर आपको हंसी आयेगी. याद कीजिये पाञ्चजन्य का कालम “ऐसी भाषा कैसी भाषा?”.
सरकारी कामकाज की भाषा में जबसे क्रमश: उर्दू को विस्थापित कर हिंदी को बढ़ाया गया तो कोई भी सरकारी फार्म भरना खानदानी हिंदीभाषी के लिए भी एक आफत हो गयी. फिल्मों से “ताजिराती हिंद दफा फलाना” “कानूनी किताब के पहले सफे पर” जैसे संवाद गायब हुए और जख़्म के नीचे की बिंदी गायब और वो सतही जख्म हो गया. वरना तो आप जानते हैं जख़्म गहरे और बाज दफा जानलेवा भी हुआ करते थे.
भाषा का परिष्कार, गठन, सृजन कामकाजी जनता का मुंह करता है, कोई भाषा संस्थान नहीं करता. पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का ‘कृ और ट्र’ न लिख पाने वाले संघ प्रचारकों को ये बात कौन समझाए?
सत्तर से अस्सी के दस सालों में बेहूदे राजैतिक प्रयोग थे और देश के जनमानस में बेहद क्षोभ और संताप था. अस्सी के बाद संजय, इंदिरा, राजीव परिघटना के बाद रहा सहा स्वदेशी तत्व भी खतम हो गया. राजीव गांधी ने एक जंग लगा ताला खोला और जंग लगी खूनीं शमशीरें हिंदुत्व के नये ठेकेदारों ने लपक लीं खुट्टल सांस्कृतिक और सांप्रदायिक राष्ट्रवाद को खाद पानी मिल गया.
बाकी बची कसर मनमोहन ने आर्थिक उदारता के दरवाजे खोल कर पूरी कर दी. हमें इसी देश में देशी से “नेटिव” बना डाला. कामकाजी आदमी गिरमिटिये मजूर हो गये और ठलुए अगंभीर लंपट सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पथ प्रदर्शक. एक देश का भीतरी और बाहरी तौर पर सांस्कृतिक सत्यानाश करने के लिए और क्या चाहिए?
नेहरु ने कहा था- “कल कारखाने आधुनिक भारत के मंदिर हैं.” आडवानी कह रहा था- “राम मंदिर आधुनिक भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का कारखाना है. “और हमें ‘पाश’ की कविता याद आती थी- “ये सब हमारे समय में ही होना था?”.
जब घर का सयाना अशक्त हो जाय तो नालायक उड़ाउ, बेटे झरता पलास्तर संभालने की बजाए बांट-बखरे की सोचते हैं यही देश का हाल था. आधुनिकता की आंधी थी पाउडर नकद और आटा उधार था.
(जारी)
pathak ji is lekh mien aap ne kya kahne ki koshish ki kyon aaj kal longo ko likhne ka shouk chada hua hai likhna kya hai pata nahi