-दीप पाठक||
आजादी के आंदोलन से लेकर आज तक हिंदूवादी देशभक्ति का विघ्नसंतोषी विचार एक लंबा सफर तय कर चुका है. भारतीय इतिहास के पिछले छ सौ सालों में भारतीय जैसी कोई चीज इस उपमहाद्वीप में बन ही नहीं पायी.
मुगलों के पतन और अंग्रेजों के आगमन के बाद इस देश में देशी तत्व में और बहुत सी चीजें घुल गयीं दलित, मुस्लिम, हिंदू तीनों के अपने अपने विवाद थे जो अपनी अपनी तरह के समाधान ढूंढ़ते थे.
आजादी की दहलीज पर ताकतवर राजनैतिक मुस्लिम अपना भू भाग अलग कर पाकिस्तान बना लिये दलितों को संविधान निर्माता पर गर्व था कि अब भारतीय समाज संविधान को जीवन पद्धति बना लेगा.
कांग्रेस ने भीतर बाहर के मोर्चे पर तब फासिस्टों जैसी सौ मुहीं सोच से काम किया. भीतर आजादी के कार्यभारों की सही धारा कम्युनिस्टों का योजनाबद्ध दमन किया तो बाहर गुट निरपेक्ष से लेकर पाक बांग्लादेश तक आनन फानन लड़ाई में अपना पक्ष मजबूत किया.
समाज में संविधान की विफलता के बीच हिंदूवादी पुर्नस्थापना करने वाली ताकतें अपना काम कर रहीं थीं तो हाशिये पर पड़े मुसलमानों के पास भी धर्म भकोसने के सिवा कोई चारा न था.
धार्मिक लामबंदी अब भाजपा की ताकत थी और इनकी ओछी देशभक्ति का माडल पूरे देश को ही स्वीकार्य न था.आज भी सवर्ण बनियों का इनका ओछा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद खिसियाए बंदरों या हाई ब्लड प्रेशर के रोगी सा है जो घर मेँ पत्नी बच्चों को गर्जना भरी डांट से लो बल्ड प्रेशर का मरीज बना देता है और जबर की डांट से पैंट में हग मारता है और अपना रोग बढ़ा लेता है.
आंतरिक सांप्रदायिक कुत्सा भरा गर्जन पाकिस्तान पर औघड़ बयानबाजी और चीन पर इनकी बंदर घुड़की को इसी परिपेक्ष्य में देखिये.