मेरे संपादक , मेरे संतापक -19
-राजीव नयन बहुगुणा||
नीम अँधेरे में एक गाडी की लाईट को बदहवास अपना पीछा करते देख मेरे पिता सुन्दर लाल बहुगुणा को आभास हो गया कि हो न हो मेरे कामरेड मुझे तलाशते इस नरक लोक तक आ पंहुचे हैं. उन्होंने खुद को पुलिस के जवानो के शिकंजे से छुड़ाने के लिए भरपूर जोर लगाया जो उन्हें दबोच कर बैठे थे. डाक्टर ने सुई लगाने की धमकी दी, जो अगली सीट पर बैठा था. हमारा वाहन और करीब आ पंहुचा तो मेरे फादर ने बुरी तरह चीखने चिल्लाने का ड्रामा शुरू किया.



फिर छीना – झपट शुरू हुयी. काबू करने की कोशिश कर रहे डाक्टर की भुजा पर उन्होंने जोर से दांत से काट खाया. प्रत्युत्तर में सुरक्षा सैनिकों ने उन्हें घूंसों से नवाज़ा और नाखूनों से खुरच दिया. जगूड़ी की उक्ति – भय भी शक्ति देता है, को चरितार्थ करते हुए वह एम्बुलेंस से कूदने लगे, तू डाक्टर है या जल्लाद है, न मुझे पानी पीने दे रहा है, और न पेशाब करने दे रहा है, कहते हुए वह बाहर निकल आये. शरीर पर वस्त्र के नाम पर केवल एक कच्छा था. पल भर में हम पंहुच गए. कई सप्ताह से बुभुक्षु, दुर्बल, वार्धक्य से कृष मेरे पिता को यह भी ध्यान नहीं रहा कि उनका विवाहित युवा पुत्र उनके सामने है, जिसने रूढी वादी गढ़वाली ब्राह्मण परिवार की परम्परा के तहत इससे पहले अपने पिता के गुप्तांगों को कभी विमोचित नहीं देखा है. मेरे पिता नीम बेहोशी में थे .
( जारी )