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-राजीव नयन बहुगुणा||
ठीक दो माह बाद नीरज को उनका वादा याद दिलाते हुए मैंने पाती भेज कर उत्तरकाशी आने का तकाजा किया. उन्होंने एक हज़ार रूपए फीस के अलावा हरिद्वार तक आने – जाने के पहले दर्जे का किराया माँगा, साथ ही यह भी शर्त रखी की हरिद्वार से उत्तर काशी लाने – ले जाने के लिए विशेष वाहन और रहने के लिए डाक बंगले की व्यवस्था की जाए. एक छात्र नेता के लिए इस रक़म की व्यवस्था करना जटिल न था. उत्तरकाशी के लालाओं से ढाई हज़ार रुपये वसूल कर नीरज जी को पांच सौ रूपये एडवांस भिजवा दिए गए, मनीआर्डर के ज़रिये. नीरज यारी – दोस्ती में चाहे हज़ारों खर्च कर दें, पर अपनी फीस के मामले कट्टर थे. क्यों न होते. फिल्म लाइन और प्रोफेसरी दोनों छोड़ चुके थे, और कवि सम्मलेन ही योगक्षेम का आधार था.
यद्यपि उस समय तक मंच के कई हंसोड़ कवि अपनी फीस पांच हज़ार तक कर चुके थे, लेकिन नंबर वन होने के बाद भी नीरज ने कई वर्षों से अपनी फीस यही नियत कर रखी थी. जिस तरह किसी मार्किट प्रोडक्ट की कीमत तो कम हो, लेकिन बिक्री का वाल्यूम बहुत अधिक हो, उसी तरह नीरज भी अपनी अत्यधिक मांग के आधार पर यह भरपाई कर लेते. एक दिन कई साल बाद मैंने नैनीताल में उनसे पूछा – किसी दिन लम्बी बात करनी है फुर्सत से. कब आ जाऊं घर पर ? ” सिर्फ दीवाली के दिन घर पर रहता हूँ, उन्होंने हँसते हुए कहा. वह कभी कभी दिन में तीन तीन कवि सम्मलेन भी पीट लेते थे.
नियत समय पर मैं उन्हें लेने हरिद्वार स्थित उनके इंजीनियर पुत्र के घर पंहुंच गया, लेकिन न नीरज वहां पंहुचे थे और न उनके पुत्र को उनके आने की कोई पूर्व सूचना थी. मैं हलकान हो गया. किसी तरह फोन पर लाइटनिंग काल मिला कर उनसे कैफियत पूछी तो जवाब मिला कि मैंने सुना है कि उत्तरकाशी के सारे रास्ते बर्फ से बंद हैं. रास्ते बंद हैं तो मैं यहाँ तक हवाई जहाज़ से थोड़े ही पंहुचा हूँ गुरुदेव. मैंने उन्हें खूब खरी खोटी सुनाई. वह फोन रखते ही कार दौडाते हुए हरिद्वार पंहुचे.

शाम घिर आई थी, बोले थक गया हूँ, सुबह चलेंगे. लेकिन मैं आशंकित था की रात भर में मूड न बदल जाए. बस दो घंटे का सफ़र है, आश्वस्त करते हुए मैंने उन्हें जीप में ठूँसा. पुत्र के घर पानी भी नहीं पीने दिया. रम की बोतल पहले से ही कस्वा ली गयी थी. चार घंटे बीत जाने पर भी जब हम मुकाम तक नहीं पंहुचे, और कडाके की ठण्ड पड़ने लगी, तो उन्होंने पूछा – अब कितनी दूर है ? बस दो घंटे का सफ़र और है, मैंने जवाब दिया. यह १९८३ की जनवरी का महीना था. चारों और की पहाड़ियों ने बर्फ का लिबास पहन कर खुद को नींद की आगोश में सुला रखा था. हवाओं के कंटीले झोकों की मार पड़ते ही नीरज बार बार हाय हाय करते. मुझे कोसते, पर मैं दृढ़ता से कहता कि गलती आपकी ही है, मेरी नहीं. रात के दो बजे हम उत्तरकाशी पहुंचे. नशा हिरन हो चुका था, और कोई भी ढाबा खुला होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, एक एक पैग रम और भरपूर पानी से पेट भर कर हम सो गये.
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