-आशीष वशिष्ठ||
प्रसिद्ध बालीवुड फिल्म ‘एक था टाइगर’ में अभिनेता सलमान खान ने देश की सबसे बड़ी खुफिया एजेंसी रॉ (रिसर्च एंड एनालासिस विंग) के एजेंट का किरदार निभाया था. टाइगर, एजेंट विनोद, जेम्स बांड और खुफिया एजेण्ट के कई किरदार आपने सिल्वर स्क्रीन पर देखे होंगे एवं जासूसी उपन्यास और कामिक्स में उनके रोंगटे खड़े कर देने वाले किस्से भी पढ़े होंगे. लेकिन आम जिंदगी में शायद ही कभी आपकी मुलाकात किसी असली टाइगर या खुफिया एजेंट से हुई हो. मौत को हथेली पर रखकर बीस बरस तक पाकिस्तान में रह कर देश के लिए जरूरी सूचनाएं जुटाने वाले भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ के एक ऐसे ही एजेंट का नाम है मनोज रंजन दीक्षित.
मनोज रील (फिल्मी) नहीं रियल (असल) जिंदगी का एजेंट अर्थात टाइगर हैं. जासूसी के आरोप में पकड़े जाने के बाद भी मनोज ने पाकिस्तान की मिलेट्री इंटेलिजेंस और खुफिया एजेंसी आइएसआई की मृत्यु तुल्य यातनाओं वाली चार साल लम्बी पूछताछ प्रक्रिया को झेलने के बावजूद भी मुंह नहीं खोला था, क्योंकि पाकिस्तानी एजेंसियां मनोज से कुछ भी उगलवाने में पूर्णतः असफल रहीं थी. अंततः पाकिस्तान में अवैध रूप से घुसने के आरोप में उसे सजा सुनायी गयी. मनोज रंजन ने पाकिस्तानी और वहां की नरकनुमा जेलों में अपने जीवन के बीस अनमोल वर्ष गुजार दिए. 2005 में रिहा होकर भारत वापस लौटने पर उस खुफिया एजेंसी, जिसने उसे पाकिस्तान भेजा था, ने मात्र एक लाख छत्तीस हजार रुपये थमाकर अपना पल्ला झाड़ लिया था. रॉ ने सम्मानपूर्वक जिंदगी जीने के साधन मुहैया कराने की बजाय मनोज को अपने हाल पर जीने के लिए छोड़ दिया. खराब माली हालत, बेरोजगारी और पारिवारिक हालातों ने मनोज को इस कदर तोड़ दिया कि अपनी पहचान गुप्त रखने वाले एजेंट को अपनी पहचान जाहिर करने के लिए मजबूर होना पड़ा.
मनोज की कहानी किसी जासूसी नावेल के एजेंट की तरह दिलचस्प और रोमांच से भरी है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जापतागंज, नजीबाबाद जिला बिजनौर के विद्या सागर दीक्षित और मिथिलेश दीक्षित की दो संतानों में बड़े मनोज रंजन दीक्षित में देश भक्ति का जज्बा बचपन से ही भरा था. पिता विद्या सागर पेशे से टीचर थे. मनोज बताते हैं कि, बचपन से जासूसी कहानियां पढने का शौक था. 1984 में नजीबाबाद के साहू जैन कॉलेज से ग्रेजुएशन के बाद सरकारी नौकरी की तलाश में था, इसी दौरान मेरी मुलाकात एजेंसी (रॉ) के टेलेंट फांइडर जितेन्द्र नाथ परमार से हुई. मुझे ऑफर अच्छा लगा और जनवरी 1985 में मैँ एजेंसी में बतौर एजेंट शामिल हो गया. बकौल मनोज नौ महीने की कड़ी ट्रेनिंग के बाद सितम्बर माह में उन्हें अमृतसर कसूर (लाहौर ) बार्डर पर छोड़ दिया गया. अपनी जान जोखिम में डालकर किसी तरह मनोज दीक्षित पाकिस्तान में दाखिल हो गए और वहां उन्होंने मोहम्मद इमरान नाम से अध्यापन कार्य शुरू कर दिया. इस दौरान वो रावलपिंडी, कराची, लाहौर और इस्लामाबाद आदि शहरों में गया. अध्यापन के साथ उन्होंने काम को अंजाम देने के लिए कई पेशे अपनाएं.
मोहम्मद इमरान अध्यापक के तौर पर पाकिस्तानी सेना की इंटेलिजेंस बटालियन के कर्नल जादौन के बेटे अजीम जादौन को पढ़ाया करता था. पढ़ाई में कमजोर अजीम जादौन को उसके कर्नल पिता ने आई.एस.आई का फील्ड आफीसर बना दिया. अजीम जादौन से किसी बात को लेकर हुई मारपीट के बाद आईएसआई ने मोहम्मद इमरान उर्फ मनोज रंजन दीक्षित को पकडने के लिए खुफिया जाल बिछा दिया. 23 जनवरी 1992 को हैदराबाद के सिंध से पाकिस्तानी सेना ने मनोज को जासूसी के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया और यहां से अमानवीय यातनाओ का दौर शुरू हुआ.
मनोज के अनुसार, हैदराबाद सिंध में पकड़े जाने के बाद मुझे 21 दिसम्बर 1992 को 2 हेड सेकेण्ड कोर क्वाटर, कराची में डाल दिया गया. यहां उन्हें बर्फ की सिल्लियो पर लिटाकर यातनायें दी गयी. पन्द्रह पन्द्रह दिन खड़े रहने दिया. बिजली के झटके दिए गए. उलटा लटकाया गया मगर मनोज ने अपनी जुबान नहीं खोली. इस बीच मनोज के पकड़े जाने की खबर किसी तरह उनके परिजनों को भी लग चुकी थी जिन्होंने अपने स्तर से रॉ के अधिकारियों और भारत सरकार को सूचित किया लेकिन तसल्लीबख्श उत्तर नहीं मिला. जून १९९२ में मनोज को कराची से निकाला गया और 82 एस एंड टी (सप्लाई एंड ट्रांसपोर्ट बटालियन) 44 एफ एफ की क्वाटर गार्ड में रखा गया (यह क्वाटर गार्ड अपनी यातनाओ के लिए विश्व प्रसिद्ध हैं). यहां मनोज को समरी एंड एविडेंस मेजर इस्लामुद्दीन कुरैशी की सुपुर्दगी में दिया गया. यहां मनोज ने जो कुछ भी सहा और झेला वो मजबूत से मजबूत इरादे वाले को भी उसके रास्ता से डिगा सकता है उसकी जुबान खुलवा सकता है लेकिन मनोज ने अपने होंठ सिल लिये थे देश की खातिर.
चार साल के यातनाओं के बाद कोई सुबूत ने मिलने के बाद पाकिस्तान सेना ने मनोज को 8 फरवरी, 1996 को जासूसी के आरोपों से बरी करके बिना पासपोर्ट-वीजा ( इल्लीगल इमिग्रेशन ) के पाकिस्तान में घुसपैठ करने के आरोप में सिविल पुलिस के सुपुर्द कर लांडी जेल मलीर, कराची भेज दिया. इस दौरान उनका सुप्रीम कोर्ट में केस चलता रहा. और कुछ हाथ ना लगने पर आखिरकार 22 मार्च 2005 को वाघा बार्डर पर भारत सरकार के हवाले कर दिया गया. मनोज बताते हैं उनकी रिहाई के आदेश तो 30 सिंतबर, 2000 को ही हो गये थे लेकिन पाक फौज के अधिकारियों ने उनकी रिहाई पांच साल तक लटकाये रखी. भारत लौटने पर मनोज ने नौकरी व आर्थिक मदद के सरकार और अधिकारियों से संपर्क किया पर उसे कोई जवाब नहीं मिला.
रॉ एजेंट के तौर पर बिताए दिनों का याद करते हुए मनोज बताते हैं कि फिल्मों में जैसे एजेंट को दिखाया जाता है असल में एक एजेंट की जिंदगी उससे बिल्कुल अलग होती है. फिल्मों में एजेंट को मौज मस्ती करते और एक्शन हीरो की तरह पेश किया जाता है, जबकि असल जिंदगी इससे बिल्कुल अलग होती है. और जहां तक बात मारधाड़ की है तो एक एजेंट उतना ही क्राइम करता है जितने की जरूरत होती है. गुप्तचरों और जासूस को समाज में सही दृष्टि से नहीं देखे जाने के सवाल पर मनोज बताते हैं कि, जासूसी कोई अपराध या जासूस होना बुरा नहीं है. मेरी निगाह में एजेंट बनना शुद्ध रूप से देश सेवा है. अगर जासूस नहीं होंगे तो दुश्मन देश की गतिविधियों के बारे में जानकारी नहीं मिल पाएगी. एजेंट से मिली जानकारियों के आधार पर ही विदेश नीति और फौज की कार्रवाई तय होती है. पकड़े जाने और मौत का खतरा हमेशा सिर पर मंडराता है लेकिन देशभक्ति की भावना काम करने की प्रेरणा देती है. जब दुश्मन देश में लोग हमारे देश के बारे में गलत बोलते हैं तो गुस्सा आता है और यही गुस्सा देशभक्ति के जज्बे को बढ़ाने का काम भी करता है.
एक जासूस की पृष्ठभूमि के चलते मनोज नौकरी पाने से लेकर आम जीवन में कई मुसीबतों का सामना कर रहे हैं क्योंकि समाज जासूस को गलत नजर से देखता है. मनोज बताते हैं कि हरिद्वार जिले के रोशनाबाद क्षेत्र में अमन मेटल में मुझे नौकरी मिली. नौकरी मिलने के तीन-चार महीने बाद हरिद्वार की एक अखबार में मेरे बारे में खबर छपी. फैक्ट्री के कुछ कर्मचारियों ने फैक्ट्री मालिक को इसकी सूचना दे दी. खबर छपने के एक महीने बाद फैक्ट्री मालिक ने, काम की कमी का बहाना बनाकर मुझे नौकरी से निकाल दिया. एक जासूस को समाज और परिवार में भी शक की नजर से देखा जाता है.
मनोज के अनुसार, सरकार ने उसे वर्ष 2005 में 36 हजार और फिर एक बार एक लाख रुपये दिये लेकिन बाद में एजेंसी ने किनारा कर लिया. इसी बीच मनोज ने लखनऊ निवासी शोभा से विवाह कर लिया. मनोज कहते हैं कि मैं सरकार और एजेंसी के खिलाफ लड़ाई केवल अपने लिए नहीं लड़ रहा हूं, बल्कि मैं तो चाहता हूं कि भविष्य में जो भी व्यक्ति एजेंसी में शामिल हो सरकार उसके सुरक्षित भविष्य की गारंटी उसे दे ताकि उसे मेरी तरह परेशानियों का सामना न करना पड़े. मेरी नाराज़गी सिस्टम से है देश से नहीं. देश सेवा जरूरी है क्योंकि देश तो अपना है.
गुजर बसर के लिए मनोज ने मंगलौर, रूढ़की, उत्तराखण्ड स्थित एक ईंट भट्ठे में मुनीम की नौकरी कर ली. कुछ माह पूर्व मनोज की पत्नी शोभा की तबीयत अचानक बिगडने लगी. उन्होंने पत्नी को चेकअप कराया तो उनके पेट में दो ट्यूमर व गालब्रेडर में पथरी निकली. मनोज पत्नी को लेकर गोमती स्थित राममनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान आए, जहाँ जांच के बाद पता चला कि शोभा को कैंसर है. अब यहीं उनका इलाज चल रहा है लेकिन मनोज के पास इलाज के लिए फूटी कौड़ी भी नहीं है. पत्नी के इलाज के चलते उसकी नौकरी भी छूट गई है.
मनोज के मुताबिक वह प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री से नौकरी व आर्थिक मदद की गुहार लगा रहे हैं लेकिन कोई पुरसाहाल नहीं है. पूर्व में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने उन्हें पांच हजार रुपये की आर्थिक मदद भेजी थी. तब नजीबाबाद के तत्कालीन विधायक शीशराम ने उनकी मदद का आश्वासन दिया था पर कुछ नहीं हुआ. पत्नी की बीमारी, सरकार और समाज की बेरूखी ने मनोज की कमर तोड़ दी है. मनोज कहता है कि दुश्मन देश की यातनाओं से ज्यादा दर्द अपनों की बेरूखी और सरकार के रवैये ने दिया है. फिलवक्त मनोज कैंसर से जूझ रही पत्नी के इलाज के लिए दो लाख की रकम जुटाने में लगा है. मनोज कहते हैं कि मैंने अपनी जिंदगी के दो दशक देश सेवा में गुजारे हैं, मैं नहीं चाहता हूं कि सरकार मेरे लिए बहुत कुछ करे पर कम से कम मेरी इतनी मदद तो करे कि मैं इज्जत से जिंदगी गुजार सकूं.
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