अख़बारों और न्यूज़ चैनल्स को सिर्फ विज्ञापन चाहिए, इसी चक्कर में ठग किस्म के लोग अपने मंसूबे पूरे करने के लिए विज्ञापनों का सहारा ले रहें है. विज्ञापन एजेंसी से रिलीज आर्डर मिलना काफी है. फिर ये विज्ञापन प्रसारण करने वाले अख़बार और न्यूज़ चैनल्स विज्ञापन प्रसारित कर देतें हैं, जिसके चलते इस प्रक्रिया में किसी भी स्तर पर यह जाँच नहीं होती कि ये विज्ञापन पाठकों या दर्शकों को ठगने कि कोई चाल तो नहीं? नतीजा भुगतते हैं इन अख़बारों के पाठक और न्यूज़ चैनल्स के दर्शक. सच तो यह कि ऐसे सभी मामलों में ये अख़बार और न्यूज़ चैनल्स भी ठगों द्वारा ठगी गई राशि में हिस्सेदारी के रूप में विज्ञापन लेते हैं. हद तो तब हो जाती है जब गुर्दे जैसे नाज़ुक अंगों के साथ खिलवाड़ करने वाले ठग रुपी चिकित्सक भ्रामक विज्ञापनों के सहारे अख़बारों और TV पर अपनी ठग कला को प्रचारित करने लगते हैं तथा अविनाश वाचस्पति जैसे बुद्धिजीवी भी विज्ञापन के पीछे छुपी मंशा को नहीं पहिचानते और न सिर्फ ठगी का शिकार होतें हैं बल्कि अपनी बीमारी को गंभीर अवस्था तक पहुंचा देते है. अविनाश वाचस्पति कि कहानी खुद उनकी जुबानी…
-अविनाश वाचस्पति||
18 जुलाई 2011 दिन रविवार एक चैनल पर डॉ. आर के अग्रवाल का साक्षात्कार देख रहा हूं। एकाएक आशा की किरण नजर आती है। डॉ. साहब पीतमपुरा दिल्ली में हैं और कुख्यात व्याधियों जैसे हेपिटाइटिस सी की चिकित्सा होम्योपैथी पद्धति से करते हैं। तभी इनके कार्यालय के फोन नंबर पर बात करके समय तय करता हूं सांय 7 बजे का और अपनी धर्मपत्नी के साथ घर से अपनी कार में अपनी सारी केस हिस्ट्री के साथ चल देता हूं। वहां पहुंचकर डॉक्टर साहब अपने चैम्बर में अपने लैपटाप में व्यस्त हैं और कनखियों (यह मुझे बाद में याद करने पर महसूस हो रहा है) से बाहर रिसेप्शन पर निगाह भी रख रहे हैं। पहुंचते ही रजिस्ट्रेशन कराने के लिए कहा जाता है और रुपये 500 की मांग परंतु मेरे यह कहने पर कि मुझे तो हेपिटाइटिस सी है तो कन्सल्टेशन फीस दोगुनी हो जाती है मतलब 1000 रुपये। चिकित्सा होम्योपैथी पद्धति से और कन्सल्टेशन सिर्फ एक हजार रुपये। मैं एक हजार रुपये जमा कर देता हूं और बदले में मिलता है एक कार्ड। मेरी मरीज आई डी 5929 है। अब मुझे नंबर बना दिया गया है।
इस प्रक्रिया में समय लगता है आधा घंटा क्योंकि बीच बीच में बाहर से फोन आ रहे हैं और रिसेप्शनिस्ट उन्हें प्रमुखता दे रही है। बहरहाल, आधे घंटे बाद मैं अपने कागजातों, एक्सरे, रिपोर्ट्स, फाइबरस्कैन (जो पिछले साल के अंतिम महीनों में इंस्टीच्यूट ऑफ लीवर एंड बायलरी साइंसिज, डी 1, वसंत कुंज, नई दिल्ली 110070 में करवाए थे) के साथ डॉक्टर के चैम्बर में दाखिल होता हूं। वे किसी रिपोर्ट को नहीं देखते और न किसी एक्सरे, फाइबरस्कैन की रिपोर्ट को, बस सीधे पूछते हैं कि क्या तकलीफ है, मैं बतलाता हूं कि मोशन समय पर नहीं आता है। जिससे दिन भर बेचैनी रहती है और हेपिटाइटिस सी बतलाया है, उसकी चिकित्सा कराना चाहता हूं। साथ ही यह भी बतला देता हूं कि सन् 2005 में मेरे गाल ब्लैडर में स्टोन था, लेकिन अपोलो अस्पताल, दिल्ली में मामला बिगड़ गया और 32 दिन सामान्य और 8 दिन आई सी यू में भर्ती रहने के बाद मेरा वजन 78 किलो से घटकर 53 किलो हो गया परंतु गाल ब्लैडर की चिकित्सा नहीं हुई अपितु पैंक्रियाज में सिस्ट हो गया। जिसे 2005 सितम्बर में गंगाराम अस्पताल में डॉ. प्रदीप चौबे जी ने मिनिमम एसेस सर्जरी से रिमूव किया है।
डॉ. अग्रवाल की सहज प्रतिक्रिया थी कि गाल ब्लैडर की पथरी के लिए उसे रिमूव करने की जरूरत ही नहीं होती है। वो तो हमारी दवाईयों से क्योर हो जाता है। मैंने कहा कि आपके बारे में जानकारी तो सबके पास पहुंचनी चाहिए। मैं सरकारी कर्मचारी होने के साथ ही एक लेखक भी हूं और मेरी रचनाएं देश भर के अखबारों और इंटरनेट पर प्रकाशित होती हैं।
उन्होंने मेरे नाम का एक कार्ड बनाया और उस पर एक एस्टीमेट खाका तैयार किया जिसमें चार या पांच दवाईयों के नाम लिखे और कहा कि आपको 15200 रुपये महीने की दवाईयां कम से कम तीन महीने तक लेनी होंगी। मैंने कहा कि क्या आपको सीजीएचएस से मान्यता है, वे बोले मालूम नहीं पर मरीज बिल ले जाते हैं और वे क्लेम करते ही होंगे। मैं तो 15200 रुपये की राशि देखकर ही चौंक गया था, यही हाल मेरी श्रीमतीजी का भी था। मैंने कहा इस बारे में मुझे सोचना होगा क्योंकि इतनी राशि तो मैं फिलहाल खर्च नहीं कर पाऊंगा।
आप कुछ रियायत बरतें तो मैं आपका और आपके बारे में इंटरनेट पर प्रचार कर दूंगा तो वे बोले कि इसमें हम कोई मोल भाव नहीं करते हैं। आप कुछ लिखेंगे तो मैं उसके लिए आपको पेमेन्ट कर दूंगा।
अब उन्होंने कहा कि आप सिर्फ दो दवाईयां शुरू कर सकते हैं जिन पर 4600 रुपये महीने की दवाई का खर्चा आएगा और आपकी बीमारी बढ़ेगी नहीं। फिर बाद में आप पूरी दवाई शुरू कर सकते हो। मैं मान गया और क्रेडिट कार्ड से पेमेन्ट कर दी, बिल मांगा और दवाई ली उसके खाने का तरीका छपा हुआ साथ में मिला। फिर मैं घर चल दिया। परंतु बिल लेना भूल गया और शायद ये ही वे चाहते भी थे।
घर पहुंचकर जब बिल के बारे में याद आया तो उनके रिसेप्शन से कहा गया कि आकर ले जाओ। मैंने कहा कि मैं नेहरू प्लेस के पास रहता हूं जो काफी दूर है और बार बार आना संभव नहीं है। आप बिल और एक 15 दिन का बैड रेस्ट का सर्टीफिकेट बनाकर कूरियर से मेरे पते पर भेज दें। उन्होंने हामी भर ली। जबकि कई बार संपर्क करने पर दो सप्ताह बाद कूरियर से बिल मिला। बैड रेस्ट के लिए उन्होंने साफ मना कर दिया, कहा कि आप यहां पर आकर हस्ताक्षर करके ले जाओ।
मुझे परसों 4 तारीख तक लगातार दवाईयां खाने से कोई फर्क नहीं दिखा बल्कि दवाई का रिएक्शन नीचे की तरफ तीन चार दर्दभरे फोड़ो के रूप में महसूस हुआ। जिससे मुझे बैठने में भी परेशानी हो रही है। मैंने पर्चे के अनुसार दवाई लेने के बाद रात को तीन बजे उठकर नींद भी खराब की है। मैंने डॉक्टर साहब को फोन किया तो उन्होंने कहा कि आप आकर दिखला दो। मेरी दवाईयों से ऐसा रिएक्शन नहीं होता है। पर मैं वहां नहीं जा पाया। तभी मुझे आज नवभारत टाइम्स अखबार में उनका एक विज्ञापन नजर आया। यह तो सीधे से मरीजों को छलने वाला उपक्रम था।
आश्चर्य की बात यह है कि देश के महत्वपूर्ण अखबार बिना उनकी सच्चाई जाने सिर्फ कुछ धन के मोह में उनके विज्ञापन प्रकाशित कर रहे हैं और इसी प्रकार कुछ चैनल उनके वीडियो को लाइव रिकार्डिंग के नाम पर प्रसारित कर रहे हैं।
सारा मामला आपके सामने है। आप मुझे इस बारे में राय दीजिए कि मुझे क्या करना चाहिए, जो साथी डॉक्टर आर के अग्रवाल से उनका पक्ष जानना चाहें, वे उन्हें फोन भी कर सकते हैं।
उनके दिए हुए बिल में टिन नंबर नहीं है। उनकी दवाई की बोतलों पर निर्माता कंपनी का पता, तारीख, एक्सपायरी, किन घटकों का मिश्रण है, इत्यादि मूलभूत जानकारी भी नहीं है। यह आप बोतलों के चित्र में देख सकते हैं।
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Mera sujhhaav he ki medical council of India ko inki shikaayat ki jaave vahi kuchh kare to kare anythaa baaki se kya ummeed kare. sab jagah ek saa haal he.
अच्छा किया जनहित में इनकी पोल खोल कर.
असल में ऐसे डॉक्टर्स का पुलिस और प्रशासन से तालमेल होता है…अविनाशजी से पूरी सहानुभूति है,ऐसे नीम हकीमों को ज़रूर दवा मिलनी चाहिए !
मीडिया लोकतंत्र का एक मजबूत आधार स्तम्भ है इसलिए इसको अपना रोल बहुत अछि तरीके से प्ले करने की जरूरत है पूरी ईमानदारी के साथ. आज यहाँ ईमानदारी का आभाव हो रहा है . बस हर कोई पैसा कमाने में लगा है इसलिए एक गलत आदमी डॉक्टर का प्रचार अख़बार और चैनल पर हो रहा है.भारत का मीडिया जातिवाद और मनिवाद से उबार नहीं प़ा रहा है , शायद इसलिए गाव और गरीब के लिए मीडिया में कोई जगह नहीं है. धन्यवाद् मीडिया दरबार ..
बहुत बढ़िया और आँखें खोलने वाला लेख है.. ये चैनल वाले तो पैसे के लिए अपनी माँ और बहन का सौदा कर दें.. ये जहर उन्हें खाना पड़े तब समझ आए.