– श्वेता त्रिपाठी||
यदि ये काम करने वाली महिलाएं ना हों तो हम कल्पना भी नहीं सकते कि हमारे जयपुर शहर में गंदगी का कितना ढेर लग सकता है। शहर की सफाई का आधा काम तो ये महिलाएं दिनभर में कचरा बीनकर ही निपटा देती हैं।
राजधानी के चारों कोनों में ऐसी कई बस्तियां हैं जिनमें हजारों की तादाद में कचरा बीनने का काम करने वाले परिवार रहते हैं। इन परिवारों की लगभग सभी महिलाएं कचरा बीनने का काम करती हैं। ये महिलाएं सुबह जल्दी उठकर बिना कुछ खाए पिए ही अपने काम पर निकल जाती हैं। दोपहर 1-2 बजे तक कचरा बीनती हैं। उसके बाद घर आकर अपने घर के काम निपटाती हैं। उसके बाद दिनभर की मेहनत से इकट्ठे किए हुए कचरे को बोरे से निकालकर बिखेर लेती हैं। अब शुरू होता है इनका छंटनी का काम। प्लास्टिक की थैलियां, कागज एवं गत्ते, कांच की बोतलें, लोहा आदि की छंटनी कर सबको अलग-अलग बोरों में भर दिया जाता है। इसके बाद यह कचरा कबाड़ी वाले के यहां बिकने जाता हैं। 10 रुपए किलो के भाव से प्लास्टिक व 5 रुपए किलो के भाव से कागज एवं गत्ते बिकते हैं। पिछले कई सालों में महंगाई ने आसमान छू लिया लेकिन इन महिलाओं के लिए कचरे भाव ज्यों के त्यों हैं। इनमें कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है। पूरे दिन भर की मेहनत के बाद इन्हें मिल पाते हैं मात्र 100 से 200 रुपए।
इनके पति भी इसी तरह का काम करते हैं। और अधिकतर महिलाओं के पति अपनी कमाई की शराब पी जाते हैं। शराब पीकर उनसे मारपीट और गाली-गलौच करते हैं। लगभग सभी महिलाएं निरक्षर हैं। और उनमें कोई हाथ का हुनर नहीं होने की वजह से उन्हें मजबूरन ऐसा काम करना पड़ रहा है।
इनमें से 90 प्रतिशत महिलाओं के बच्चे पढ़ने के लिए स्कूल जाते हैं और ना ही परिवार वाले इनके पोषण का ध्यान रख पाते हैं। और तो और आंगनबाड़ी केंद्र पर भी नहीं भेज पाते हैं। इन महिलाओं की माली हालत इतनी खराब है कि वो अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में पढ़ने की तो सोच भी नहीं सकती हैं। कुछ महिलाओं ने बताया कि सरकारी स्कूल वाले उनके बच्चों को भर्ती ही नहीं करते हैं। उन्होंने बताया कि पुलिस कभी भी आकर उनकी बस्तियों को उजाड़ देती है। यह भी एक मुख्य कारण है कि उनके बच्चे पढ़ नहीं पाते हैं क्योंकि उनके रहने का कोई पक्का ठिकाना नहीं है। इस कारण बच्चे भी उनके साथ कचरा बीनने वाले काम में लग जाते हैं। छोटे बच्चों को महिलाएं काम पर जाते वक्त अपने साथ ही ले जाती हैं। कचरा बीनते वक्त बच्चों को कचरे में ही सुला देती हैं। ऐसी स्थिति में बच्चे बिमार हो जाते हैं। उन्हें चोट भी लग जाती है।
इस काम में महिलाओं को कई बार चोट भी लग जाती है। कांच और लोहे की नुकीली चीजे चुभ जाती हैं। वायरल व मलेरिया जैसी खतरनाक बिमारियां भी हो जाती हैं। सांस लेने में तकलीफ की शिकायत रहती है। इलाज के लिए अधिकतर महिलाएं प्राइवेट अस्पतालों में जाती हैं। पूछने पर पता चला कि सरकारी अस्पताल में उनका ठीक से इलाज नहीं किया जाता है। उन्हें अच्छी दवाइयां नहीं दी जाती हैं। समाज में हर जगह उन्हें अपने इस काम की वजह से जिल्लत का सामना करना पड़ता है।
इनके परिवार कई सालों से जयपुर में रह रहे हैं उसके बावजूद इनके पास मतदाता पहचान पत्र, बीपीएल कार्ड, राशन कार्ड आदि नहीं हैं। वृद्धा, विधवा एवं विकलांग महिलाओं को पेंशन नहीं मिल रही है। बस्तियों में बिजली, पानी व ट्वायलेट जैसी कोई मूलभूत सुविधा उपलब्ध नहीं है। पानी की कमी की वजह से कई-कई दिन तक ये लोग नहा नहीं पाते हैं। पीने का पानी तक नहीं मिल पाता है। सरकारी योजनाओं की तो इन तक अभी पहुंच ही नहीं है।
ये शाईनिंग इंडिया का दूसरा चेहरा है जहां महंगाई के इस दौर में तंगी में जिंदगी गुजार रहे इन परिवार के लोगों के लिए स्वयं का मकान बना लेना तो एक सपने जैसा है। किसी एक में भी यह कहने का साहस तक नहीं है कि वो अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा लेंगे। बहरहाल जिल्लत की जिंदगी जी रहे ये परिवार पेट पालने के लिए अथक कचरा बीनने का काम कर रहे हैं।
Like this:
Like Loading...
No tags for this post.
इएसी भरत भूमि पर ये दुर्दशा आप ने इएतना दर्द भरदिया इएस लेख में आंसू निकल्गाये हे भगवन किया दुनिया तू ने ही बनाई है इएतना दुख कियो दिया इएन बे चारो को सर्कार की नीतिया भी केवल पूँजी वालो का ही साथ देती है मुझ तो लगता है अब केवल गोलिया ही हल है इएन समसिययो का आखिर कितन छिना जासकता है सदारण आदमी का हक़ इएस अन्नियाय के खिलाफ कोण खाद हो सकता है किया सर्कार के नुमात्न्दगी करने वाले भी अन्धे है इएनेह दिखाई नहीं देता आप सोचो हम किया करसकते है सब मिल कर