-मंडी, हिमाचल प्रदेश से विनायक शर्मा||
अब इसे जनता की जागरूकता कहें या देश में उच्च स्तर पर पनप रहे भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा..नित नए खुलासे हो रहे हैं बड़े-बड़े नेताओं, ऊँची पहुँच व रसूखदार सफेदपोशों के खिलाफ. चुनावी माहोल में इस प्रकार के खुलासे विरोधी दलों को आरोप लगाने का न केवल सुअवसर देते हैं बल्कि किसी हद तक नतीजों पर प्रभाव भी डालने में भी सफल रहते हैं. परन्तु मजे की बात तब हो जाती है जब सत्ता के संघर्ष में भिड़े दो बड़े दलों के नेताओं पर सामान रूप से भ्रष्टाचार व अनियमितताओं के आरोप लगें तो ऐसी परिस्थिति में निर्णायक मतदाताओं पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? हमारा इशारा हिमाचल के चुनाव के दौरान भाजपा के गडकरी व कांग्रेस के वीरभद्र सिंह पर द हिन्दू व टाइम्स ऑफ़ इंडिया समाचार पत्रों द्वारा किये गए खुलासों की ओर ही है. यही नहीं एक पत्रकार द्वारा इन आरोपों पर सवाल पूछने पर वीर भद्र सिंह इतना भड़क गए कि उन्होंने कैमरा तक तोड़ने की धमकी दे दी. इस प्रकार के आचरण से तो कांग्रेस को ही चुनाव में हानि होने की आशंका है.

हिमाचल चुनाव में एक ओर जहाँ कांग्रेस की राष्ट्रीयअध्यक्षा सोनिया गांधी ने हिमाचल (मंडी) में विगत २२ अक्टूबर को प्रथम चुनावी रैली का शुभारम्भ करते हुए कांग्रेसी कार्यकर्ताओं में जोश भरने के साथ ही प्रदेश के पर्यटन, शिक्षा, रोजगार, सड़क नेटवर्क, कृषि, उद्योग, बागवानी और इनके आधारभूत ढांचे को आगे न बढाये जाने का ठीकरा भाजपा सरकार पर फोड़ने का प्रयास किया. कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और प्रदेश के जनसाधारण पर इसका कितना असर पड़ा यह समझने से पूर्व ही मुख्यमंत्री पद के दावेदार प्रदेश कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष और पांच बार मुख्यमंत्री व तीन बार केंद्रीय मंत्री रहे वीरभद्र सिंह एक बार फिर विवादों के घेरे में आ गये. भ्रष्टाचार के कई आरोपों को झेल रहे वीरभद्र सिंह पर ताजातरीन मामले का खुलासा किया है द हिन्दू समाचार पत्र ने. समाचार पत्र में प्रकाशित समाचार की माने तो २००९ से २०१२ वर्ष के लिए जमा की गई आयकर रिटर्न में पहले कृषि से आय लाखों में दर्शाई गई थी वहीँ इन वर्षों के लिए संशोधित रिटर्न में यही आय करोड़ों में हो गई जो लगभग ३० गुना बैठती है. जबकि वीरभद्र सिंह और उनके सहयोगी आनंद चौहान ने इन सभी आरोपों को सिरे से नकार दिया है. चुनावी लाभ के लिए इन आरोपों को भाजपा द्वारा भी उस स्तर पर उठाया नहीं जा रहा क्यूंकि वीरभद्र सिंह के साथ-साथ टाइम्स ऑफ़ इंडिया समाचार पत्र में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतिन गडकरी की कंपनियों पर अनियमितता के जो आरोप लगाये गए हैं उनसे भाजपा बैकफुट पर आ गई है. आरोप-प्रत्यारोपों के इन हमलों से चुनावी माहोल में अवश्य ही कुछ गर्मी पैदा हो गई है जिसे नाकारा नहीं जा सकता. यह बात दीगर है कि दोनों ही दलों ने इन आरोपों को नकारते हुए इसे मात्र चुनावी स्टंट करार दिया है.
दो दलीय चुनावी मुकाबले के लिए प्रसिद्द देवभूमि हिमाचल में वर्तमान विधानसभा का कार्यकाल समाप्त होने पर नयी विधानसभा के गठन के लिए ४ नवम्बर को होने जा रहे विधानसभा चुनावों का नजारा इस बार कुछ अलग और विचित्र सा है. यूँ तो कहा जा सकता है कि हिमाचल प्रदेश विधानसभा के आगामी चुनावों के लिए तैयारियां जोरों पर हैं जिसमें विधानसभा की ६८ सीटों के लिए होने वाले चुनावों में कुल ४५९ उम्मीदवार अपनी किस्मत आजमा रहे हैं. प्रदेश के विधानसभा के चुनावों में जो गहमा-गहमी और जिस प्रकार की राजनीतिक भागमभाग व उत्साह पूर्व के चुनावों में हुआ करता था वह इस बार के चुनावों से नदारद है. राजनीतिक दलों के नेताओं व कार्यकर्ताओं के साथ-साथ प्रदेश की आम जनता भी खामोश व संशय में दिखाई दे रही है जिसने आनेवाले ५ वर्षों के लिए जन-आकांक्षाओं की पूर्ति और प्रदेश के चहुँमुखी विकास के लिए सत्ता की बागड़ोर सँभालने के लिए अपने जन-प्रतिनिधियों का चुनाव करना है. एक और जहाँ चुनाव सर पर आ गया है वहीँ दूसरी ओर अभी तक गुटों में विभक्त सता व मुख्य विपक्षी दल चुनावी वैतरणी पार करने से पूर्व अपनी नाव के तमाम छिद्रों व टूट-फूट की यथा संभव मुरम्मत भी नहीं कर पाए. बागी उम्मीदवारों की समस्या से कांग्रेस व भाजपा दोनों को ही सामान रूप से दो-चार होना पड़ रहा है. पूर्व भाजपा प्रदेशाध्यक्ष महेश्वरसिंह का लोकहित मोर्चा जहाँ भाजपा के असंतुष्ट व नाराज कार्यकर्ताओं और समर्थकों के बल पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने को आतुर है वहीँ इस मोर्चे में वाम दलों के सम्मिलित होने से कांग्रेस के पक्ष में पडनेवाले वाम दलों के परम्परागत मतों के नुक्सान की आशंका कांग्रेस जनों को भी सता रही है. ऐसे हालातों के चलते चुनावी ऊँट किस करवट बैठेगा इसका आंकलन या पूर्वानुमान लगाना बहुत ही कठिन कार्य है.
प्रदेशकांग्रेस के मुखिया को लेकर चल रही खींचतान तक तो यह माना जा रहा था की कांग्रेस भाजपा से पीछे चल रही थी. परन्तु, चुनावों की घोषणा से पूर्व ही कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व द्वारा पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व केंद्रीय मंत्री वीरभद्र सिंह को प्रदेश की कमान सौंपकर समय रहते सब कुछ ठीक-ठाक कर लेने और सभी ६८ निर्वाचन क्षेत्रों के टिकटों के बंटवारे के मामले में भी भाजपा से पहले निर्णय लेकर कांग्रेस को भाजपा से आगे नहीं तो कम से कम बराबरी के स्थान पर लाकर अवश्य ही खड़ा करने का प्रयास किया है. परिसीमन व कुछ चुनाव क्षेत्रों के आरक्षित हो जाने के कारण कुछ कर्मठ, व्यक्तिनिष्ठ व विजय की सम्भावना वाले प्रत्याशियों को दुसरे स्थानों पर समायोजित और प्राथमिकता के आधार पर टिकट आवंटन से अवश्य ही बागी उम्मीदवारों की समस्या दोनों दलों को झेलनी पड़ रही है परन्तु इसका अधिक प्रभाव भाजपा में देखने को मिल रहा है जहाँ कुछ पुराने, कर्मठ व पदासीन विधायकों को बिना उनको विश्वास में लिए किसी नए को प्रत्याशी बना दिया गया. ऐसी परिस्थिति में पुराने का नाराज होना व निर्दलीय या हिलोपा के टिकट पर चुनाव में उतरना लाजमी है. चुनाव की तारिख के निकट आते-आते पूरे प्रदेश के परिदृश्य पर नजर दौड़ाने से ऐसा लगता है की कांग्रेस की अपेक्षा भाजपा को आन्तरिक समस्याओं से अधिक जूझना पड़ रहा है. एक समय था जब भीतरघात की समस्या से कांग्रेस प्रत्याशी अधिक शंकित रहा करते थे. अब इसके ठीक विपरीत भाजपा के उम्मीदवारों को भीतरघात से अधिक खतरा है. कारण स्पष्ट है कि मिशन रिपीट का नारा देनेवाली भाजपा अभी भी गुटों में बंटी हुई है और सत्ता के निकट रहे विधायकों व मंत्रियों द्वारा की गई अनदेखी के शिकार स्वदलीय ही समय आने पर सबक सिखाने के लिए हथियार भांज रहे हैं. वैसे भी सत्ता की ताकत को अलग कर यदि देखा जाये तो भाजपा में वर्तमान में कोई भी ऐसा नेता नहीं है जिसका पूरे प्रदेश की भाजपा पर आधिपत्य हो. हिमाचल में वीरभद्र सिंह को कमान सौंपने से कांग्रेस के आम कार्यकर्ताओं में नए रक्त का संचार हुआ है. इसके विपरीत सत्ता में होने के बावजूद भी भाजपा के नेता व संगठन के पदाधिकारी विगत पांच वर्षों से अपने अभिजात्यवर्गीय व्यवहार के कारण आम कार्यकर्ता व जनता से निकटता बनाने में असफल रहे हैं. सत्ता का मार्ग निष्कंटक रखने के लिए पुरानों की अवहेलना व अनदेखी और पैराशूट के मार्ग से नयों को सत्ता व संगठन में तरजीह देने की गलती की सजा भाजपा को इन चुनावों में भी मिलेगी ऐसी पूर्ण आशंका है. शिमला के स्थानीय निकायों के चुनावों में पुराने कार्यकर्ताओं की अनदेखी करते हुए नए लोगों को महापौर और उपमहापौर के चुनाव में उतारने के कारण ही पराजय का सामना करना पड़ा था और यह साबित होता है २५ पार्षदों और महापौर के चुनावों में मिले मतों के अंतर से जिसमें भाजपा को २५ पार्षदों के चुनाव में जहाँ कुल १८८४८ मत हासिल हुए वहीँ महापौर व उप-महापौर पद के लिए क्रमशः १४०३५ व १६४१८ मत ही प्राप्त हुए थे. दूसरी ओर २५ वार्डों में मात्र ३ पर विजय प्राप्त करनेवाली माकपा महापौर व उपमहापौर के पद पर अपने प्रत्याशियों की विजय सुनिश्चित करने में सफल रही थी.
भाजपा, कांग्रेस व तीसरे मोर्चे द्वारा जारी किये गए चुनावी घोषणापत्र में सभी दलों ने बड़े-बड़े वायदे किये गए है. कोई लैपटॉप देने का वायदा कर रहा है तो कोई इन्डक्शन कुकर देने की बात कर रहा है. कोई पांच लाख बेरोजगारों को नौकरी देने का वायदा कर रहा है तो कोई १० लाख को. चुनाव का निर्णय इस प्रकार की घोषणाओं या वायदों से नहीं होता. दलों में विभक्त मतदाताओं से जो बच जाते हैं वही मतदाता अंततः निर्णायक भूमिका निभाते हैं. ११९० से चुनावों के नतीजों पर यदि एक नजर डाली जाये तो विपरीत परिस्थितियों में भी भाजपा या कांग्रेस को ३५ से ३६ प्रतिशत मत मिलना इस बात को स्पष्ट करता है कि इस पहाडी प्रदेश में इन बड़े दलों का लगभग ३६ प्रतिशत मतों पर एकाधिकार है. शेष ३० प्रतिशत मत छोटे दलों, निर्दलीय प्रत्याशियों व भाजपा व कांग्रेस के हिस्से में निर्णायक मत बन कर जाते हैं. अब इस प्रकार के वायदों से कितने मतदाता प्रभावित होते हैं यह तो नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा. परन्तु इतना तो कहा जा सकता है कि इस बार मैदान में तीसरे मोर्चे के उतरने से कांग्रेस या भाजपा के लिए शिमला का रास्ता उतना सरल नहीं है.
राजनीतिक विश्लेषकों का एक विशेष अनुभव यह दर्शाता है कि जहाँ एक ओर कांग्रेस हाईकमान गुटबाजी और अनुशासनहीनता की तमाम शिकायतों का निपटारा करने में अंततः सफल रहती है, वहीँ भाजपा में इस विशेषता की कमी स्पष्ट दिखाई देती है. भाजपा को यह समझना होगा कि सतही पैचअप से चुनावी दंगल नहीं जीते जाते. चुनावी बेला में अतिआत्मविश्वासी भाजपा को समझना होगा कि गुटबाजी और अंतर्द्वंद के कारण शिमला महापौर के चुनावों में हुए भीतरघात के चलते मतों में हुए भारी स्थानांतरण की भांति ही, आनेवाले चुनावों में जहाँ एक ओर रुष्ट कार्यकर्ताओं और समर्थकों द्वारा भीतरघात की सम्भावना से दो-चार होना पड़ेगा वहीं चुनावों में सत्ताविरोधी-पदग्राही का लाभ चुनावों में कांग्रेस और विरोधी मोर्चा अपने पक्ष के मतों में परिवर्तित करने में भरपूर प्रयास करेंगे. महंगाई और भ्रष्टाचार जैसे राष्ट्रव्यापी मुद्दे और अन्ना हजारे, केजरीवाल और रामदेव फैक्टर चुनाव पर कोई विशेष प्रभाव नहीं डालनेवाले. वैसे भी हिमाचल में पक्ष और विपक्ष को कुल मतदान में प्राप्त हुए मतों के प्रतिशत में कोई बड़ा अंतर नहीं होता. २००७ के चुनावों में सत्ता पर काबिज हुई भाजपा ने जहाँ ४१ सीटों पर विजय पाई थी वहीँ कांग्रेस मात्र २३ सीटों पर जीत हासिल करने के बाद विपक्ष में बैठना पड़ा था. इसी प्रकार २००३ के चुनावों में भी इसके ठीक विपरीत जहाँ कांग्रेस को ४३ सीटों पर विजय मिली थी वहीँ भाजपा को १६ सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था. अब यदि इन दोनों चुनावों में दोनों दलों द्वारा प्राप्त कुल मतदान का मत प्रतिशत देखें तो २००३ व २००७ में कांग्रेस को ४१ व ३८.९० और भाजपा को क्रमशः ३५ और ४३.७८ प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे. इसी प्रकार यदि २००९ में संपन्न हुए लोकसभा के चुनावों के नतीजों पर एक नजर दौडाएं तो भाजपा ने ४९.६१ प्रतिशत मत प्राप्त करके कांगड़ा, हमीरपुर और शिमला लोकसभा क्षेत्रों पर विजयी पताका फहराई वहीँ कांग्रेस को कुल मतदान का ४५.६० प्रतिशत मत प्राप्त कर केवल मण्डी लोकसभा क्षेत्र पर ही विजय मिल सकी थी. इन आंकड़ों से इतना तो स्पष्ट है कि यदि प्रदेश के चुनावों में कोई विशेष मुद्दा या लहर न हो तो लगभग ४ से ६ प्रतिशत मतों की बढ़त लेकर ६८ विधानसभा वाले इस छोटे पहाडी प्रदेश की सत्ता के सिहांसन पर सरलता से ताजपोशी सुनिश्चित की जा सकती है. परन्तु वर्तमान चुनाव में हिमाचल लोक मोर्चा व अन्य कई स्थानीय फैक्टर सरलता से ४ से १० प्रतिशत मतों को अपने पक्ष में या बिखराव की सम्भावना पैदा करने में सक्षम हो सकते है. परन्तु इसका लाभ या हानि किसको मिलेगा यह अभी कहना कठिन है.
वीरभद्र सिंह की प्रदेश कांग्रेस मुखिया पद पर ताजपोशी के बाद कांग्रेस अब एकजुट हो भाजपा को बराबर की टक्कर देने के लिए नए जोश और उत्साह के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित, चुनावी रणभूमि में उतरने को तैयार है. भाजपा को अब कांग्रेस के साथ-साथ अपने दल के बागी उम्मीदवारों और असंतुष्टों के हमलों द्वारा की जाने वाली संभावित क्षति से निपटने के उपाय करने की आवश्यकता है. पुराने और वरिष्ठ नेताओं व कार्यकर्ताओं की सत्ता व संगठन में अनदेखी के नतीजे की एक झलक शिमला महापौर व उपमहापौर के चुनाव में भाजपा के असंतुष्टों द्वारा अभी हाल ही में दिखाई जा चुकी है. इसी प्रकार भाजपा से निलंबित सांसद राजन सुशांत की जगजाहिर नाराजगी को आगामी चुनावों में हलके से लेना, बिल्ली को देख कबूतर द्वारा आंख बंद करने वाली कहावत को चरितार्थ करने समान होगा. वैसे भाजपा को एक बात पल्ले बांध लेनी चाहिए कि प्रदेश की सत्ता हथियाने को तत्पर कांग्रेस अपना सर्वस्व दावँ पर लगाने से गुरेज नहीं करेगी और यदि सफल नहीं भी होती तो उसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है. वहीँ भाजपा को यदि पराजय का मुहँ देखना पड़ा तो प्रदेश की सत्ता से बेदखली के साथ-साथ २०१४ में होनेवाले लोकसभा के चुनावों में चारों सीटों पर उसकी पराजय निश्चित है. कांग्रेस द्वारा वर्चस्व की लड़ाई को विराम देने के बाद चुनावों में होनेवाली क्षति को नियंत्रित करने के समय रहते कारगर उपाय अब भाजपा को करने हैं. अन्यथा कांगड़ा और मण्डी लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत पडनेवाले 34 विधानसभा क्षेत्रों के नतीजे अवश्य ही मिशन रिपीट का मार्ग अवरुद्ध करेंगे ऐसी सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता.