-डॉ कुमारेन्द्र सिंह सेंगर||
समाज की विभिन्न समस्याओं से इतर हम सब इस समय सिर्फ और सिर्फ जनलोकपाल बिल को लेकर ही संजीदा हैं। जो लोग इस बिल के समर्थन में हैं वे अन्ना और उनकी टीम के साथ स्वर मिलाते दिख रहे हैं और जो लोग इसके विरोध में हैं उनके लिए अनशन-धरना एक तमाशा सा है। अनशन की, धरने की सच्चाई क्या है, अन्ना टीम और अन्ना की वास्तविकता क्या है, जनलोकपाल बिल का वर्तमान अथवा भविष्य क्या है, यह एक अलग विषय हो सकता है। इन सबसे इतर मनुष्य की संवेदनाओं का, मानसिकता का दायरा बदला है, उसका नजरिया बदला है। वर्तमान में देखा जाये तो मीडिया के चौबीस घंटे प्रसारण में अन्ना टीम के अनशन में भीड़ का आना या न आना विषय बना हुआ है; राजेश खन्ना की मृत्यु के बाद उनके प्रेम के, उनके वसीयत के, उनके वारिस के चर्चे हैं; कुछ घंटों का प्रसारण फूहड़ता का पर्याय बना हंसी का एक धारावाहिक निकाल देता है; कुछ घंटे हम भूत-प्रेत के साथ, अंधविश्वास के साथ, कुरीतियों-आडम्बरों के साथ गुजार देते हैं। इन सबके बीच अत्यल्प समय देश के हालातों से परिचित होने के लिए मिलता है और वो भी तुरत-फुरत समाचारों के रूप में।
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मीडिया अपना काम कर रहा है, देखा जाये तो आज मीडिया एक प्रकार का व्यवसाय बन चुका है। इस कारण जो व्यावसायिक समूह इसमें अपना धन लगा रहा है वह किसी न किसी रूप में अपना लाभ अर्जित करने का प्रयास भी करेगा। उनका काम तो व्यावसायिक हितों को साधने के लिए है, व्यावसायिक लाभ लेने के लिए है पर हम इंसान क्यों अपने आपको उनके इस कदम में असंवेदनहीन सा पाते हैं? एक बारगी हम विचार करें तो भले ही हमारे लिए असम के दंगों को रोक पाना, उनके पीड़ितों की मदद कर पाना सम्भव न हो; भले ही हम गुवाहाटी की उस लड़की को बचा पाने के लिए घटनास्थल तक न पहुंच पा रहे थे; भले ही हम अपने शहर से दूर किसी भी स्थान पर किसी भी मदद के लिए एकाएक न पहुंच पाते हों पर कम से कम हम अपनी पहुंच में, अपने शहर में तो ऐसा कर ही सकते हैं।
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हम अकसर अपने सजे-सजाये कमरों में कूलर, एसी की ठंडक के बीच चाय की चुस्कियां लेते हुए इस तरह की समस्याओं पर चिन्ता व्यक्त करते हैं। हम आये दिन किसी आलीशान होटल, गेस्ट हाउस के बड़े से हॉल में खचाखच भरी भीड़ के समक्ष लच्छेदार भाषा में मानवीय संवेदनाओं की व्याख्या करते हैं; दो-दो चार के ग्रुप बनाकर देश की हालत पर, राजनीति पर, अर्थव्यवस्था पर अपनी बेबाक राय देते दिखते हैं; देश के तन्त्र को खस्ता करार देते हैं, अधिकारियों को, कर्मचारियों को, मंत्रियों, जनप्रतिनिधियों को भ्रष्ट करार देते हुए किसी भी सुधार की आशा न करने की सलाह तक दे मारते हैं। इन तमाम सारी बातों के दौरान हमारे चेहरे पर एक अजीब तरह का गर्व झलकता है, अपने आपमें बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन करते हुए ऐसा दर्शाते हैं मानों हमने समूचे तन्त्र की पोल खोलकर रख दी हो। इस झूठी पोल-खोल स्थिति के बीच हम उस समय स्वयं निर्वस्त्र नजर आते हैं जबकि हमारे सामने ऐसी कोई स्थिति आकर हमसे मदद की गुहार लगाती है।
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हमारे सामने अकस्मात आई किसी भी अनचाही स्थिति पर हम अपने आपको स्वनिर्मित आवरण में छिपाने का प्रयास करने लगते हैं। उस समय यह देश हमारा नहीं होता है; उस समय हम इस समाज का अंग नहीं होते हैं; उस समय वह हमारे आसपास की घटना नहीं होती है; वह अनचाही घटना हमारे किसी अपने की नहीं होती है। हम ऐसी किसी भी अनचाही घटना से बहुत ही खूबसूरती से किनारा करके अपने आपको बचा ले जाते हैं। इस सबके बाद भी हमारे चेहरे पर तनिक भी क्षोभ का एहसास नहीं उभरता है; हमें तनिक भी खिन्नता अपने आपसे नहीं होती है; हमें अपने आप पर जरा सा भी क्रोध नहीं आता है….बजाय इसके हम आसानी से पूरी घटना को, समूची घटनाओं को भुलाकर फिर से अपना आदर्श बिखेरने में लग जाते हैं। मीडिया को, अपने आसपास के माहौल को, सामाजिक तन्त्र को, भ्रष्ट वातावरण को, व्यक्तियों के क्रियाकलापों को दोष देने में लग जाते हैं बिना इस पर विचार किये कि हम स्वयं भी किसी न किसी रूप में इस तरह के असंवेदनशील, अमानवीय वातावरण को बनाने में मददगार साबित हुए हैं।