-आलोक पुराणिक||
डेंगू मचा हुआ है. एनबीटी ने अपनी रिपोर्टों में बताया है कि फॉगिंग यानी दवा के छिड़काव से डेंगू के मच्छरों पर कोई खास असर ना पड़ता. ये साइकॉलजिकल ट्रीटमेंट है, मच्छरों का नहीं, पब्लिक का. पब्लिक बहल जाती है. धुआं सा उड़ता है, फॉगिंग से कई बार लगता है जैसे कोहरे से भरी वादियों में पहुंच गए. डेंगू मच्छर समझदार हैं, वो ना बहलते. अपना काम करके ही जाते हैं.
डेंगू चेतना का प्रसार जरूरी है. एमसीडी मच्छरों पर असर ना छोड़ पा रही है, पर पब्लिक पर असर छोड़ने के लिए फॉगिंग सी दिखा देती है. धूं-धूं मचाता, पीठ पे कंटेनर लादे फॉगिंग वाला एकदम अंतरिक्ष यात्री सा चुस्त चौकस दिखता है. पर जी, वह है मनोरंजन कर्मी, फॉगिंग से पब्लिक का दिल भर बहलता है.
नेतागण डेंगू पीड़ितों पर ना रो रहे हैं. ऐसा भी ना दिख रहा है कि कोई नेता खराब फॉगिंग मशीनों को जोड़ रहा हो, उन्हें रिपेयर कर रहा हो. फिल्में भी अब बीमारियों पर ध्यान ना दे रही हैं. एक जमाने में कैंसर पर इतनी फिल्में बनी थीं कि उस दौर के नौजवान मानने लगे थे कि सुंदरियों का ध्यान खींचने के लिए कैंसर होना लगभग जरूरी सा है. डेंगू पर फिल्में बनें, इश्क वगैरह में डेंगू का रोल दिखाया जाए. पब्लिक जागरूक बने डेंगू के कुछ ठोस इंतजाम हों.
हां, किसी सरकारी एजेंसी के हवाले डेंगू चेतना के प्रचार-प्रसार का काम ना छोड़ा जाए. उनके इश्तहारों में ग्रामप्रधान ग्रामवासियों को तमाम विषयों के बारे में समझाते हैं. सच यह है कि अब ग्रामप्रधान स्तर के अधिकांश नेता डेंगू के नाम पर आने वाले फंड के अलावा कुछ और समझने की कोशिश भी ना करेंगे. सरकारी इश्तहारों में रामू काका आशा बहन को समझा सकते हैं कि डेंगू मच्छरों को समझाना जरूरी है कि यूं डेंगू ना मचाएं. इस बारे में डेंगू गीत भी बन सकता है, जिस पर करोड़ों खर्च हो सकते हैं.
मैंने एक एनजीओ से कहा कि डेंगू पर कुछ करो ना. एनजीओ वाला बोला, अभी तो बाजार एड्स का है. डेंगू चेतना कैसे फैले.
ये डेगूँ भी समझ गये है कि सब मेँ मिलावट है
ha ha ha.
भाई वह करोरों कमाने का एक और तरीका ???????????????