–प्रणय विक्रम सिंह||
वीरान सडकें, अस्तव्यस्त यातायात, खाली दफ्तर, रोजमर्रा की जरूरतों के समान के लिए परेशान अवाम और बेरौनक विशाल मॉल, यही तस्वीर थी पूरे भारत बंद की. भारतीय उद्योग परिसंघ के मुताबिक इससे देश के कई हिस्से में व्यवसाय और व्यापार को भारी नुकसान हुआ है. नुकसान का निश्चित आंकड़ा पता लगा पाना मुश्किल लेकिन अनुमान है कि उत्पादन और व्यापार के प्रभावित होने से देश को 12,500 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है. शायद यही हासिल भी है भारत बंद का, पर क्या भारत बंद हो सकता है? क्या भारत बंद होने की चिंता किसी सियासी दल को है? नहीं, तो फिर विपक्ष के भारत बंद के निहितार्थ क्या है. बताया जा रहा है एफडीआई, डीजल मूल्य वृद्वि और रियाइती दरों पर गैस सिलेण्डर के संख्या निर्धारण के विरोध में विपक्ष ने भारत बंद को आहूत किया था. सरकार के निर्णय से असंतुष्टड्ढ यूपीए के सहयोगी दल भी इस आयोजन में सहभागी बने.
भारत बंद की घोषणा सबसे पहले वामपंथी दलों ने की फिर बाद में एनडीए ने भी अलग से 20 सितंबर को ही भारत बंद का आह्वान किया. बंद में समाजवादी पार्टी व डीएमके भी कूद पड़ी. ममता बनर्जी द्वारा यूपीए से अलग होने की घोषणा के चलते विपक्षी दलों के भारत बंद को मनमोहन सरकार के खिलाफ एक बड़ी राजनीतिक घटना के रूप में देखा गया.
दरअसल विपक्षी दलों ने भारत बंद का आयोजन कर लोक सभा के आम चुनाव का बिगुल बजा दिया है. हालांकि बसपा ने भारत बंद में शामिल न होकर इस बात का स्पष्ट संकेत दिया कि वह सरकार गिराने के पक्ष में नहीं है. सवाल उठता है कि जो दल सरकार के साथ है किन्तु बंद के समर्थन में हैं क्या उन्हे अभी सरकार के द्वारा जन विरोधी निर्णयों को वापस लिए जाने की उम्मीद है. उनका इस आंदोलन में शामिल होना जनता को गुमराह करने की कोशिश से अधिक क्या वजूद रखता है? क्या भारत बंद के माध्यम से सियासी जमाते जनता की नब्ज टटोलना चाहती थी.
दीगर है कि ममता बनर्जी के समर्थन वापसी के पश्चात सरकार अल्पमत में है. सांसदो का अंकगणितीय योग आवश्यक २७२ सांसदों की संख्या से दूर है. तृणमूल के १९ सांसदो के सरकार से हटने के पश्चात अब २५४ रह गयी है. ऐसे में २२ सांसदो वाली समाजवादी पार्टी और २१ सांसदो वाली बहुजन समाज पार्टी पर सरकार की निर्भरता बढ़ जाना स्वभाविक है. सरकार की अभी दोनो दलों की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देख रही है. संख्या बल ही सरकार के वकार, सहयोगी संगठनों के रोब और विपक्ष के दवाब की आवृत्ति का तय करता है. सियासी हलको में एक कहावत मशहूर है कि दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश के गलियारे से होकर निकलता है. वैसी ही स्थिति वर्तमान में भी है. मसलन सपा और बसपा का रुख ही सरकार की आयु को तय करने जा रहा है. सर्वविदित कि सपा और बसपा के मध्य छत्तीस का आंकड़ा है. दोनो का एक ही कश्ती पर सवार होकर यात्रा करना फिलहाल आकाश कुसुम प्रतीत होता है. किंतु सपा द्वारा सरकार को बाहर से समर्थन देने के ऐलान ने यह मुश्किल भी आसान कर दी है. पर समझने की बात यह है कि मंहगाई और रसोई गैस के मुद्दे पर कांग्रेस सरकार जनता के आक्रोश का सामना कर रही है.
जो दल कांग्रेस के हम-कदम है वह भी अपने-अपने सूबों में सरकार विरोधी लहर के थपेड़ो को सहन करने को मजबूर होंगे. सरकार ने अपना रूख स्पष्टड्ढ कर दिया है कि वह न तो एफडीआई पर झुकने जा रही है न ही कीमतें वापस लेगी. कांग्रेस शासित राज्यों में छह की बजाए रसोई गैस सिलेण्डरो की संख्या ९ करके बाकी दलों की स्पष्टड्ढ संदेश भी दे दिया गया है. ऐसी सूरते-ए-हाल में सरकार के सहयोगी दलों का भारत बंद में शामिल होना सरकार के साथ नूरा कुश्ती खेलने जैसा है. सरकार मदांध है. सरकार के मंत्री दो टूक बयान दे रहे है कि नाभिकीय करार के समय भी यूपीए ने बहुमत साबित किया था, और अब भी बहुमत साबित कर लेंगे. सरकार के रणनीतिकारों को पहले से ही इस बात का भरोसा था कि ममता बनर्जी के जाने से सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता. शायद तभी वित्त मंत्री पी.चिदंबरम ने गुरुवार को कहा था कि हमारे पास पुराने दोस्त तो हैं ही, नए दोस्त भी बनने की उम्मीद है. वैसे सरकार का प्रयास होगा कि तृणमूल की जगह उसे कोई मजबूत दोस्त मिल जाए. इस मामले में उसकी निगाह यूपी की सत्ता गंवा चुकी बसपा पर टिकी है.
चूंकि लोक सभा के चुनाव के मुद्दो का आकाश बड़ा होता है. वृहद आकाश पर बड़े उद्देश्यों वाले विषय लोक सभा चुनावों में मुद्दा बनते हैं. तभी भारत बंद के बहाने सभी सियासी जमाते जनता के ह्नदय चाप को माप रही है. उत्तर प्रदेश के दोनो दल भी यही कर रहे हैं. मुलायम और मायावती स्थितियों का मूल्यांकन कर सियासी नफा-नुकसान को तौल रहे है. मुलायम सिंह ने अपनी पार्टी की आम कार्यकारणी बैठक में आगामी चुनावों में तृतीय मोर्चे की सरकार व स्वयं के प्रधानमंत्री बनने की सम्भावना और तमन्नाओ को कई बार प्रकट भी किया है. सपा नेता मुलायम सिंह यादव हमेशा अनेक भूमिकाओं में दिखाई देते हैं. एक तरफ वे वर्तमान राजनीतिक घटनाक्रम का लाभ उठाकर एक बार फिर तीसरे मोर्चे की नींव रखने की कोशिश कर रहे हैं, दूसरी तरफ धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सरकार बचाने की विवशता भी जाहिर करते नजर आ रहे हैं. मुलायम खुद को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर चुके हैं. वे यह उम्मीद भी लगाए बैठे हैं कि धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के नाम पर कांग्रेस प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने में उनकी मदद करेगी. भविष्य के सर्मथन की प्रस्तावना को तैयार करते हुए सपा नेता मुलायम सिंह यादव कहते हैं कि अभी मध्यावधि चुनाव का कोई सीन नहीं है. हम फिलहाल सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता से दूर रखने के लिए सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे हैं.
हास्यास्पद बात है कि सपा का यह समर्थन किराना में एफडीआई के विरोध के साथ ही जारी रहेगा. वामपंथी दल भी फिलहाल मध्यावधि चुनावों के पक्ष में नहीं हैं. संभावित तीसरे मोर्चे में शामिल होने वाली पार्टियों की कोशिश है कि सरकार के खिलाफ बढ़ रहे जनाक्रोश का फायदा भाजपा न उठा पाए. इसलिए सपा, वामपंथी दल व अन्य सहयोगी पार्टियां सरकार के खिलाफ सडकों पर उतर आई हैं. गैर भाजपा दलों के तीसरे मोर्चे की तस्वीर मुलायम सिंह की अगुवाई में न सिर्फ दिखाई दी है, बल्कि सुनाई भी दी है. माकपा महासचिव प्रकाश करात से लेकर पार्टी के वरिष्ठ नेता सीताराम येचुरी ने खुलकर मुलायम सिंह को तीसरे मोर्चे की अगुवाई करने की पेशकश की है. संसद मार्ग पर वामदलों के शीर्ष नेता प्रकाश करात, एबी बर्धन, सीताराम येचुरी, टीडीपी नेता चंद्र बाबू नायडु और जनता दल सेक्यूलर नेता एचडी देवगौड़ा की पार्टी जेडीएस के साथ मुलायम सिंह ने कंधे से कंधा मिलाकर यूपीए सरकार के खिलाफ तीसरे मोर्चे की भावी तस्वीर का आईना भी दिखाया. बंद के नाम पर जिस तरह राजनीतिक दल लामबंद हुए हैं, उससे भविष्य के समीकरणों के संकेत साफ नजर आ रहे हैं.
खैर अभी तो यह सब कयास है. महज सियासी अफसाने हैं, किंतु अफसानो को हकीकत बनते कई बारे देखा गया है.
(लेखक स्तंभकार हैं)