-समीर सूरी||
कहा जाता है कि राष्ट्रपति की संविधान मैं वही भूमिका है जो परिवार में किसी बड़े बुजुर्ग की है. जब तक बुजुर्ग में क्षमता है वह परिवार को अपने ढंग से संचालित करता है. वही बुजुर्ग जब बागडोर नौजवान के हाथों सौंप देता है तो कुछ समय बाद अपने को असहाय पाता है. वृद्धावस्था में जिस बुजुर्ग का कार्य परिवार को दिशा देने का होता है वही अपने परिवार के हाथों नियंत्रित हो जाता है. यही शाश्वत सत्य है , यही प्रकृति का नियम है. किसी भी पद को गरिमा उस पद के अधिकार देते हैं न कि उसको सुशोभित करता व्यक्तित्व.
सवाल उठता है कि एक सांकेतिक पद होने के बावजूद राष्ट्रपति का पद इतना महत्वपूर्ण क्यों हो जाता है. संविधान के स्वरुप के कारण मिली जुलि सरकार चुनने के समय इसकी महत्ता बढ़ जाती. इसके अलावा देश विदेश कि सांकेतिक यात्रायें, प्राण दंड की माफ़ी व बिल पर हस्ताक्षर उनके अन्य संवैधानिक कार्यभार हैं. अगर भारतीय गणतंत्र का इतिहास उठाएं तो एक – दो अवसर ही ऐसे दिखाई देते हैं जब राष्ट्रपति ने मंत्रिमंडल निर्णय का प्रतिकार किया हो. राष्ट्रपति का पद मंत्रिमंडल के अधीन इस तरह जकड़ा है कि वह उसके निर्णय को मानने को बाध्य है.
नम्बूदरीपाद सरकार को १९५९ में गिराया गया. संविधान के खुलेआम दुरूपयोग के सामने राजेंद्र बाबू असहाय व सिर्फ एक मूकदर्शक साबित हुए. संविधान में प्रावधान होने के बावजूद विरले ही राष्ट्रपति ने पुनर्विचार के लिए कोई भी निर्णय वापिस मंत्रिमंडल को भेजा है. ज्ञानी जैल सिंह का पत्रकारिता पर अंकुश लगाते बिल को रोकना एक अपवाद ही कहा जायेगा. शायद उनका वह निर्णय व्यग्तिगत प्रतिद्वंदिता से ज्यादा प्रभावित था. देश के सामने इस समय कई महत्वपूर्ण मुद्दे हैं. कमर तोड़ मंहगाई , नक्सलबाड़ी, राज्यों में बढ़ता असंतोष ,किसानों की बद से बदत्तर होती हालत और इस पर गिरती अर्थव्यवस्था. प्रतीत होता है कि एक एक दिशाहीन काफिला जैसे किसी अंधड़ कि और बढ़ता चला जा रहा हो.
प्रणव दा देश के वित्तमंत्री लगभग तीन वर्ष तक रहे. इस दौरान महंगाई आसमान छूने लगी, मुद्रास्फीति की दर सन २००० के बाद अपने अपने अधिकतम स्तर पर है. रुपए का भाव डालर के मुकाबले न्यूनतम स्तर पर है. वित्तमंत्री होने के बावजूद अगर वह इस सब को रोकने में असफल रहे तो राष्ट्रपति पद पर वह इन सब समस्याओं के हल के लिए क्या योगदान कर पाएंगे इस पर कोई भी भ्रम पालना व्यर्थ है. अर्थव्यवस्था सुधारने के परे वह कांग्रेस पार्टी के संकटमोचक रहे हैं और गाहे बगाहे यह भूमिका वह अवश्य निभाते रहेंगे. अफज़ल गुरू की फांसी का मुद्दा एक ज्वलंत मुद्दा है जो राष्ट्रपति के पास ६ साल से लंबित है. बिना राजनीतिक रंग दिए इस पर निर्णय देते समय उनका कांग्रेसी इतिहास अवश्य आड़े आयेगा यथास्थिति बने देने रहने के ही आसार हैं.
आये दिन खांप पंचायतों के तालिबानी फरमान हमारे सामने खड़े हैं. क्या उन उत्पीड़ित बहनों की कराह मंत्रिमंडल तक नहीं पहुँची. क्या आत्महत्या करते किसान मंत्रिमंडल के कार्यभार से परे हैं. क्या महिलाओं को अकेले रातों को बाहर न निकलने की सलाह देता कमिश्नरी फरमान मंत्रिमंडल में कोई हलचल कर पाया. अगर नहीं तो राष्ट्रपति के पद पर आसीन होने के बाद तो उनके अधिकार और भी सीमित हो जाते हैं. अगर मंत्रिमंडल तक लोगों की आवाज़ पहुँचने मैं असमर्थ है तो राष्ट्रपति भवन की मोटी दीवारों को भेदकर वह भवन के ३४० कमरों मैं ग़ुम हो कर न रह जाए , ऐसा कोई कारण नहीं.”
aapki news ke font samjh nahi aa rahe ha………..phle sahi tha pd lete the but kuch dino se nahi pd pa rahe ha…..pls help kare.