-राजीव गुप्त||
स्वतंत्रता-पश्चात भारत में भ्रष्टाचार एक प्रमुख मुद्दा बन सकता है इसकी कल्पना शायद ही किसी
ने की होगी. देश से व्याप्त भ्रष्टाचार को ख़त्म करने हेतु जनता सडको पर उतरकर सरकार पर दबाव बनाकर उससे क़ानून बनवायेगी यह लगभग अशोचनीय सी-ही स्थिति थी. परन्तु गत दो वर्षो से भारत में ऐसा हुआ. जनता हाथो में मशाल थामे सडको पर उतरी, कई – कई दिनों तक समाजसेवी अन्ना हजारे के नेतृत्व में अनशन हुए. ऐसा लगने लग गया कि भारत में इस भ्रष्टाचार-विरोधी आन्दोलन का “राष्ट्रीयकरण” हो गया है क्योंकि इस आन्दोलन में समाज के हर वर्ग ने बढ़-चढ़कर भाग लिया परिणामतः भ्रष्टाचार-विरोधी आन्दोलन की लहर पूरे देश में चली. इस आन्दोलन ने एक बार तो महात्मा गांधी के नेतृत्व वाले आंदोलनों की याद दिला दी क्योंकि सन 1920 के बाद के आंदोलनों की प्रकृति बिलकुल बदल गयी थी और गांधी जी के आह्वान पर समाज के सभी वर्ग ने अंग्रेजो की पराधीनता से स्वतंत्रता-प्राप्ति की साफ़ नियति से घर से निकल पड़े थे.


परन्तु हाल के अन्ना टीम के अनशन ने जनता के सारे अरमानो को धता बताकर एक अलग प्रकार का
ही अविश्वसनीय कदम उठाया. अगर हम अन्ना और अन्नाटीम के बयानों पर नजर दौडाए तो पता चलता है कि कल तक अन्ना टीम बिना चुनाव लड़े जिस राजनीति की शुद्धिकरण की बात करती थी उसने अपना एकदम से पैतरा कैसे बदल लिया यह एक यक्ष प्रश्न जनता के सामने खड़ा हो गया है. अभी हाल ही में अन्नाटीम के तीन सदस्यों द्वारा दिल्ली के जंतर-मंतर पर अनशन शुरू करने के लगातार दो दिन बाद तक यह घोषणा होती रही कि जब तक हमारी मांगे नहीं मानी जाती हम बलिदान हो जायेंगे पर अनशन से पीछे नहीं हटेंगे पर रातोरात ऐसा क्या हो गया कि 23 लोगो की बातो का आधार बनाकर जनता को राजनैतिक विकल्प देने के लिए राजनैतिक पार्टी बनाने की घोषणा के साथ अनशन ख़त्म कर दिया गया. इसी घोषणा के साथ अन्ना टीम की नियति भी सवालो के घेरे में आ गयी और जनता में यह सन्देश गया कि क्या ये सारे अनशन अन्ना टीम की महत्वकांक्षा का यह कोई पूर्व निर्धारित कार्यक्रम का हिस्सा थे और जनता को यह दिखाने की कोशिश थी कि सरकार उनकी नहीं सुन रही है जबकि सरकार का रवैया तो पहले से ही जग – जाहिर था हालाँकि सरकार का रवैया इस बार जरूर आश्चर्यजनक रहा कि पिछले साल अगस्त में सरकार जिस अन्ना की उंगलियों पर नाच रही थी, उसने इस बार उनकी टीम से प्रत्यक्ष तो क्या अप्रत्यक्ष संवाद की भी जरूरत नहीं समझी और आन्दोलन को अपनी मौत मरने के लिए छोड़ दिया.


यह सर्वस्वीकार्य है कि भारत में भ्रष्टाचार की सड़क चुनाव-प्रणाली से ही गुजरती है अतः चुनाव-सुधार की नितांत आवश्यकता है पर चुनाव जीतने की महत्वकांक्षा के साथ – साथ राजनैतिक विकल्प देने का रास्ता जमानत जब्त होने की तरफ भी जाता है. जनता बड़ी भावुक प्रवृत्ति होने की वजह से मतदान भावुकता के वशीभूत होकर मतदान करती है. भले ही अन्ना और उनके शुभचिंतक चुनाव न लड़े और किसी बड़े नाम की बजाय आम जनता के बीच से कोई अपना उमीदवार खड़ा करे पर इतना तो तय है कि आगामी लोकसभा का चुनाव बड़ा ही दिलचस्प होने वाला है. भविष्य में राजनीति के दांव – पेच का ऊँट किस करवट बैठेगा व सरकार किस पार्टी की बनेगी यह तो समय के गर्भ में है पर हाँ इतना जरूर है कि जनता के लिए अब किसी आन्दोलन पर विश्वास करना बड़ा मुश्किल हो जायेगा.
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